बुधवार, 21 जून 2017

मुस्लिम कृष्ण भक्त कवि : रसखान

  By : अशर्फी लाल मिश्र    
Asharfi Lal Mishra
                                                                                                                                                       


                                                                  
 रसखान
                                                                    
परिचय : बृजभाषा के प्रसिद्ध मुसलमान कवि रसखान के जन्म-संवत ,जन्म-स्थान आदि के विषय में तथ्यों के अभाव  में निश्चित रूप से कुछ कह सकना सम्भव  नहीं है। अनुमान किया गया है कि सोलहवीं शताब्दी ईसवी के मध्य भाग में उनका जन्म  हुआ होगा। (हिंदी साहित्य :डा० हजारी प्रसाद  द्विवेदी :पृष्ठ २०७ ) रसखान ने अपनी कृति  प्रेमवाटिका के रचना काल का उल्लेख निम्न दोहे में किया है :
                     विधु सागर रस इंदु सुभ बरस सरस रसखानि। 
                     प्रेमवाटिका रचि रुचिर चिर-हिय-हरष बखानि।।
                      (प्रेमवाटिका :दोहा ५१ )
      सम्भवतः इसी दोहे के आधार पर डा० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने प्रेमवाटिका का रचना-काल वि० सं० १६७१ अर्थात ईसवी सन १६१४ स्वीकार किया है (हिंदी साहित्य :पृष्ठ २०६ )उक्त मान्यता में दोहे के सागर शब्द का अर्थ सात लिया गया है। किन्तु सामान्यतः छन्दशास्त्रों में सागर का अर्थ चार का सूचक है और तदनुसार प्रेमवाटिका का समय वि०सं०  १६४१ सिद्ध होता है। रसखान और गो० विट्ठलनाथ की भेंट को सम्मुख रखते  हुए  यह संवत अधिक संगत प्रतीत होता है। 'दो सौ बावन वैष्णवों की वार्ता 'में रसखान की भी वार्ता सम्मिलित है। इस वार्ता के अनुसार ये गोस्वामी विट्ठलनाथ के बड़े कृपापात्र शिष्य थे। गोस्वामी विट्ठलनाथ का परलोकगमन १६४२ विक्रमी संवत में हुआ था। अतः यह निश्चित है कि इस समय तक रसखान गोस्वामी जी का शिष्यत्व स्वीकार कर चुके होंगे। इसी आधार पर आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इनका कविता काल वि ० सं ० १६४० के उपरांत स्वीकार किया है। (हिन्दी साहित्य का इतिहास :पृष्ठ १९२ )
        रसखान अथवा रसखानि कवि का उपनाम है। इनका वास्तविक नाम क्या था आज तक निश्चित नहीं है। शिवसिंह सरोज में इन्हें सैयद इब्राहीम पिहानी वाले लिखा गया है। किन्तु  दो सौ बावन वैष्णवों की वार्ता में रसखान दिल्ली के पठान कहे गए हैं। स्वयं रसखान ने भी इसी बात का संकेत निम्न पंक्तियों में किया है।
                       देखि  ग़दर हित  साहिबी दिल्ली नगर मसान। 
                       छिनक  बाढ़सा-बंस  की ठसक छोरि रसखान।।
                       प्रेम  निकेतन  श्री  बनहि  आय गोवर्धन-धाम। 
                       लह्यो सरन चित चाहिकै जुगल सरूप ललाम।।
          इस कारण डा० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने 'रसखान 'नाम के दो कवियों का उल्लेख किया है

  1. सैयद इब्राहीम पिहानी वाले 
  2. गोसाईं विट्ठलनाथ जी के कृपापात्र शिष्य सुजान  रसखान 
              (हिन्दी साहित्य :पृष्ठ २०६ )
दूसरी ओर विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने अनुमान के आधार पर 'पिहानी वाले ' और दिल्ली के पठान रसखान की एकता बताते हुए लिखा है :
       यदि पिहानी से इनका सम्बन्ध रहा हो तो यही अनुमान करना पड़ेगा कि हुमायूँ की अनुकूलता और अकबर के अनुग्रह से सैयदों को दिल्ली में भी कुछ आश्रय स्थान अवश्य मिला होगा। संभव है ये पिहानी से दिल्ली चले गए हों और वहीं रहने लगे हों। (रसखानि ग्रन्थावली :पृष्ठ २५ ) इस प्रकार रसखान के जन्म-स्थान के विषय में केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है। किन्तु रसखान की ऊपर उद्धृत पंक्तियों से यह सर्वथा स्पष्ट है कि इनका सम्बन्ध शाही खानदान  से था  और यह उस समय जब सिंहासन के लिए ग़दर होने के कारण दिल्ली श्मशानवत हो रही थी तब दिल्ली और बादशाह बंश की ठसक छोड़कर वृन्दावन में आगये और यहीं कृष्ण-माधुरी का पान एवं गान करते हुए निवास करने लगे। इस ग़दर का काल भी इतिहास के आधार पर अकबर के  राज्य-काल में संवत १६४० विक्रमी के आसपास स्वीकार किया जा सकता है। (रसखानि ग्रंथावली :पृष्ठ २७ )
        दिल्ली छोड़कर प्रेम-धाम आने उक्त राजनैतिक कारण के अतिरिक्त अन्य कुछ कारणों का उल्लेख ' दो सौ चौरासी वैष्णवों की वार्ता 'एवं किम्बदन्तियों में  मिलता है। इनके  अनुसार पहले रसखान किसी साहूकार के पुत्र अथवा स्त्री के रूप पर इतने  मुग्ध थे कि एक क्षण के लिए भी उसे देखे बिना न रह सकते थे। श्रीकृष्ण की रूप-छवि देखकर इनके प्रेम का विषय और ही हो गया। रसखान के निम्न  दोहे से भी यही सूचित होता है। 
                         तोरि  मानिनी  ते  हियो  फोरि मोहिनी मान। 
                         प्रेमदेव की छबिहिं लखि भए मियां रसखान।।
रचनाएँ :
*सुजान रसखान 
*प्रेम वाटिका 
*दानलीला 
माधुर्य भक्ति :
        रसखान का   साध्य भी सूरदास ,हितहरिवंश आदि  कृष्ण-भक्त कवियों की   भांति  प्रेम की प्राप्ति रहा है। रसखान ने प्रेम-वाटिका में अपने इस  साध्य तत्व को स्पष्ट करते हुए कहा है :
                        ज्ञान ध्यान विद्या मती,मत बिस्वास बिवेक। 
                        विना  प्रेम  सब  धूरि है, अगजग एक  अनेक।।
                        प्रेम  फांस  में  फँसि  मरे, सोई  जिये  सदाहिं। 
                        प्रेम-मरम जाने बिना,मरि कोउ  जीवत नाहिं।। (प्रेम-वाटिका :दोहा २५-२६ )
तथा ---
                       जेहि  पाएं  वैकुंठ  अरु, हरिहूँ  की  नहिं चाहि। 
                       सोइ अलौकिक सुद्ध सुभ,सरस सुप्रेम कहाहि।।(प्रेम-वाटिका :दोहा २८ )
       वास्तव में रसखान की दृष्टि में प्रेम और हरि अभेद्य हैं। क्योंकि प्रेम हरि का रूप है और स्वयं हरि प्रेम-स्वरुप हैं अतः हरि और  प्रेम में उसी प्रकार की अभिन्नता है जिस प्रकार की  सूर्य  और धुप में है।
                      प्रेम हरी को  रूप  है ,त्यों हरि प्रेम-सरूप। 
                      एक होइ द्वै यों लसे,ज्यों सूरज अरु धूप।। (प्रेम-वाटिका :दोहा २४  )
       रसखान के विचार  में आनन्द की प्राप्ति केवल प्रेम के द्वारा सम्भव है। वह उन सभी पदार्थों से विलक्षण है जिनसे प्राणी-मात्र  परिचय होता है :
                    दंपति सुख अरु विषय रस,पूजा ,निष्ठा,ध्यान। 
                    इनते    परे   बखानिए,  शुद्ध    प्रेम     रसखान।।(प्रेम-वाटिका :दोहा १९ )
        इसी कारण रसखान ने प्रेम के विषय में कहा  है --
                   प्रेम अगम अनुपम अमित ,सागर सरिस बखान। 
                   जो  आवत  एहि  ढिग बहुरि जात नाहिं रसखान।।
                   कमल तंतु  सो  छीन अरु, कठिन खड्ग की धार। 
                   अति    सूधो    टेढ़ो    बहुरि,  प्रेमपंथ    अनिवार।। (प्रेम-वाटिका :दोहा ३ और ६  )
       इस प्रकार का  अगम प्रेम रूप,गुण,धन और यौवन  आकर्षण से रहित, स्वार्थ से मुक्त सर्वथा शुद्ध होता है और इसीलिए इसे सकल-रस खानि कहा गया है। एक दोहे  में प्रेम का स्वरुप  प्रकार प्रस्तुत  गया है :
                  रसमय, स्वाभाविक,बिना स्वारथ अचल महान। 
                  सदा  एक   रस   शुद्ध  सोइ   प्रेम  अहे   रसखान।।(प्रेम-वाटिका :दोहा ४२ )
       इस शुद्ध प्रेम के  बिना ज्ञान,कर्म और उपासना केवल अहंता को बढ़ाने वाला है अर्थात  साधनों  साध्य प्रेम नहीं है तो यह केवल दुखप्रद है और प्रेम की जिसे प्राप्ति हो गई उसके लिए कुछ जानना शेष नहीं रह जाता।
                 जेहि बिनु जाने कछुहि नहिं,जान्यों जात बिसेस। 
                 सोई   प्रेम, जेहि  जानिके,रहि  न जात कछु सेस।। (प्रेम-वाटिका :दोहा १८ )
     
        वेद मर्यादाएँ तथा जागतिक  नियम इस प्रेम की प्राप्ति में विघ्न-रूप सिद्ध होते हैं। अतः जब तक साधक इन नियमों को दृढ़ता से पकड़े रहता है तब तक उसे प्रेम की प्राप्ति नहीं होती और दूसरी ओर यदि साधक के ह्रदय में प्रेम का प्रकाश हो जाता है उस समय ये सभी नियम बंधन स्वतः छूट जाते हैं:
                   लोक-वेद-मरजाद  सब लाज काज संदेह। 
                   देत बहाए प्रेम करि,विधि निषेध को नेह।। (प्रेम-वाटिका :दोहा ७  )
        रसखान ने प्रेम-रस  देने वाले  के रूप में राधा-कृष्ण  स्मरण किया है। उनके अनुसार यही युगल-रूप वह माली है जिनके कारण प्रेमवाटिका सदा हरी भरी रहती है :
                   प्रेम-अयनि श्री राधिका,प्रेम बरन नन्दनन्द। 
                   प्रेम  बाटिका  के  दोऊ,माली  मलिन द्वन्द।।(प्रेम-वाटिका :दोहा १ )
        यद्यपि उक्त दोहे में रसखान ने राधा और कृष्ण दोनों को प्रेम का विकास करने वाले के रूप में स्वीकार किया है ,तथापि सामान्य रूप से उन्होंने कृष्ण को ही अपना इष्ट है। सुजान रसखान के अनेक सवैयों तथा कवित्तों से इसी बात की पुष्टि होती है। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा है :
                   बांसुरीवारो बड़ो रिझवार है,स्याम जु नैसुक ढार ढरैगो। 
                   लाड़लो छैल वही तो अहीर को पीर हमारे हिये की हरैगो।। 
                        (सुजान रसखानि :सं० विश्वनाथ  मिश्र :सवैया ७ )
       प्रेम-लीलाओं  वर्णन में भी कवि ने राधा को गोपियों से विशिष्ट स्थान नहीं दिया है। हास-परिहास छेड़-छाड़ ,रास आदि के वर्णन में गोपी सामान्य का वर्णन उपलब्ध होता है। किन्तु कुछ सवैये ऐसे हैं जिनमें राधा को कृष्ण की दुलही के रूप  में स्वीकार कर उनको स्वकीया माना गया है। इन्हीं सवैयों के आधार पर राधा की अन्य गोपियों से महत्ता सिद्ध  है :
                      मोर  के  चंदन  मोर  बन्यौ  दिन दूलह है अली नंद को नंदन।
                     श्री बृषभानुसुता  दुलही  दिन  जोरी  बनी  बिधना  सुखकंदन।।
                     आवै कह्यौ न  कछु रसखानि री दोऊ फंदे छवि प्रेम के फंदन। 
                     जाहि  बिलोकें  सबै  सुख  पावत  ये  ब्रज  जीवन  हैं दुखदंदन।।
                            (सुजान रसखानि :सं० विश्वनाथ  मिश्र :सवैया १९० )
       नन्दनन्दन कृष्ण की अपूर्व छवि देखकर गोपियाँ कृष्ण को अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देती हैं। कृष्ण के बिना उन्हें अब चैन नहीं पड़ता। रात-दिन वही सांवली सलोनी मूरत उनकी आँखों के सम्मुख खड़ी रहती है। कृष्ण की रूप-छवि के साथ-साथ गोपी की व्याकुलता का वर्णन कवि द्वारा निम्न  शव्दों में :
                    सोहत  है  चंदवा  सिर  मोर   के  जैसिये  सुंदर  पाग   कसी है। 
                    तैसिये  गोरज  भाल  बिराजति  जैसी  हिये  बनमाल  लसी है। 
                    रसखानि बिलोकत बौरी भई दृग मूँद के ग्वालि पुकारि हँसी है। 
                    खोलारि  घूंघट  खोलों  कहा  वह  मूरति  नैनन  माँझ   बसी है।
                            (सुजान रसखानि :सं० विश्वनाथ  मिश्र :सवैया १७९ )
      कृष्ण के प्रति इस अनुराग को गोपियाँ स्वयं स्वीकार करती हैं ~
                    जा  दिन  ते  निरख्यो नंदनंदन कानि तजी घरबंधन छूट्यो। 
                    चारु  विलोकनि कीनी सुमार सम्हार गई मन मार ने लूट्यो। 
                    सागर को सरिता जिमि धावै न रोकी रहे कुल को पुल टूट्यो। 
                    मत्त  भयो  मन  संग  फिरै  रसखानि सरूप सुधारस लूट्यो।।
                          (सुजान रसखानि :सं० विश्वनाथ  मिश्र :सवैया १७८ )
       गोपियाँ केवल रूप से प्रभावित हुई हों ऐसी बात नहीं है। वृन्दावन कानन में बजने वाली कृष्ण की बाँसुरिया  भी उन्हें मोहित कर लेती है ,उनके मन को मथ  डालती है और इस प्रकार उन्हें अधीर बना देती है। कृष्ण बाँसुरी में मधुर-तान आलापने के साथ-साथ गोपियों का नाम ले लेकर उन्हें बुलाते हैं और इस प्रकार उनके मन का धैर्य तो डिग ही जाता है किन्तु गाँव-गाँव में उनके अनुराग की चर्चा चल पड़ती है। ऐसी स्थिति में गोपियों का यह कहना अत्यधिक स्वाभाविक है :
                   कान्ह  भए  बस  बाँसुरि  के  अब  कौन  सखी  हमको  चहि  है । 
                   निस द्यौस रहे संग साथ लगी यह सौतनि तापन क्यों सहि है।
                   जिन मोहि लियो  मन मोहन  को रसखानि सदा हमको दहि है। 
                   मिल  आओ  सबै  सखी  भाग चलैं अब तो ब्रज में बंसुरी रहि है।। 
                               (सुजान रसखानि :सं० विश्वनाथ  मिश्र :सवैया ६४  )


                   साभार स्रोत:
  • हिंदी साहित्य :डा० हजारी प्रसाद  द्विवेदी
  • दो सौ बावन वैष्णवों की वार्ता
  • ब्रजभाषा के कृष्ण- काव्य में माधुर्य भक्ति :डॉ रूपनारायण:हिन्दी अनुसन्धान परिषद् दिल्ली विश्वविद्यालय दिल्ली के निमित्त :नवयुग प्रकाशन दिल्ली -७ 
  • हिन्दी साहित्य का इतिहास:आचार्य रामचन्द्र शुक्ल 
  • रसखानि ग्रन्थावली 
  • सुजान रसखानि :सं० विश्वनाथ  मिश्र 
  • प्रेमवाटिका 

                      
       

     


शनिवार, 17 जून 2017

कृष्णदास

       By : अशर्फी लाल मिश्र
             
                                                             अशर्फी लाल  मिश्र 
                                                                     
                                                                कृष्णदास 

इतिवृत्त :आचार्य वल्लभ के शिष्य कृष्णदास का जन्म डा० दीनदयाल गुप्त के अनुसार वि०  सं० १५५२ में और निधन वि० सं० १६३२ और १६३८ के बीच में हुआ। चौरासी वैष्णवों की वार्ता के अनुसार ये गुजरात के चिलोतरा ग्राम में एक कुनबी के घर में उत्पन्न हुए थे। कृष्णदास अनुसूचित जाति के  होने पर भी आचार्य के विशेष कृपा पात्र थे। किन्तु गोस्वामी विट्ठलनाथ जी   इनके आचरण  से सदैव अप्रसन्न रहते थे।
     गोकुलनाथ रचित वार्ता से इनके जीवन तथा चरित्र पर जो प्रकाश  पड़ता है उसके अनुसार ये रसिक स्वभाव के थे। दूसरी ओर ये चतुर और हठवादी भी बहुत थे। इनकी इस हठवादिता तथा शासन-चतुरता  के कारण इनके समकालीन भक्त अथवा गो० विट्ठलनाथ ही नहीं स्वयं श्रीनाथ जी भी परेशान रहते थे। इसी स्वभाव के कारण जो इनकी दुर्गति हुई- उससे
                  अधो गच्छन्ति तामसाः 
वाली उक्ति स्वयं चरितार्थ हो उठती है। इतने बुरे स्वभाव के होते हुए भी अपनी शासन-चतुरता के कारण कृष्णदास का अपने सम्प्रदाय में विशेष सम्मान था। सम्प्रदाय की नींव को अधिक से अधिक दृढ़ करने की चेष्टा इन्होंने समस्त जीवन भर की। उसके लिए इन्होंने अच्छे अथवा बुरे सभी साधनो का उपयोग किया। तात्पर्य यह है कि इन्होंने भगवान् की कीर्तन-सेवा से इतर श्रीनाथ जी के मन्दिर  की व्यवस्था  तथा सम्प्रदाय के प्रसार की ओर विशेष ध्यान दिया।
काव्य-रचना ;
  आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार (हिन्दी  साहित्य का इतिहास :पृष्ठ १७६ )  निम्न तीन ग्रन्थ  जो प्राप्य नहीं हैं :

  1. जुगल भान चरित्र 
  2. भ्रमरगीत 
  3. प्रेम तत्व-निरूपण 


 * स्फुट पद (वर्षोत्सव ग्रन्थों में संकलित )
माधुर्य भक्ति :
       वृन्दावन में नित्य विहार करने वाले राधा-कृष्ण कृष्णदास के उपास्य हैं। ये उपास्य-युगल रसमय ,रसिक और नवल-किशोर हैं। नाना प्रकार की लीलाएँ  करना ही इनका उद्देश्य है भक्त इन्ही लीलाओं का गान करता है और ध्यान करता है। राधा-कृष्ण की मधुर-लीलाओं का गान ही कृष्णदास की उपासना है। राधा-कृष्ण के प्रेम के अतिरिक्त गोपी-कृष्ण के प्रेम का भी वर्णन इन्होंने किया है। इसी प्रेम की पूर्वराग के पदों में कृष्ण की रूप माधुरी का सुन्दर वर्णन लक्षित होता है :
                  देखि जीऊँ माई नैन रंगीलो। 
                  ले  चलि  सखी  तेरे  पाइ  लागों  जहाँ  गोबरधन  छैल   छबीलो।।
                  रसमय  रसिक  रसिकनी  मोहन  रसमय  बचन  रसाल रसीलो। 
                  नवरंग  लाल  नवल  गुन  सुन्दर  नवरंग भाँति नव  नेह नवीलो।।
                  नख  सिख  सींव  सुभगता  सींवा  सहज सुभाइ  सुदेस    सुहीलो। 
                  कृष्णदास प्रभु रसिक मुकुट मनि सुभग चरित रिपुदलन हठीलो।।
        कृष्ण की रूप-माधुरी से मुग्ध गोपी ,कृष्ण-दर्शन के लिए सदा लालायित रहती है। किन्तु उसे लोक-लाज का भय  उन दर्शनों से सदा वंचित रखता है। अन्त  में जल मरने के निमित्त  वह पनघट पर पहुँचती है और वहाँ कृष्ण को पाकर लोक-लाज को त्याग उन्हीं के प्रेम-रस में मग्न हो जाती है :
                  ग्वालिन कृष्ण दरस सों अटकी। 
                  बार बार पनघट पर आवत सर जमुना जल मटकी।।
                  मनमोहन को रूप सुधानिधि पीवत प्रेम रस गटकी। 
                  कृष्णदास  धन्य  धन्य  राधिका लोक लाज पटकी।। 
      श्रीकृष्ण-मिलन पर गोपी को जिस सुख की प्राप्ति होती है उसका वर्णन भी संक्षेप में किया गया है। इस कारन उनके पदों में भाब-तल्लीनता का गुण अधिक लक्षित नहीं होता। किन्तु कुछ पदों में लीला का सुन्दर वर्णन किया गया है। नृत्य के निम्न पद में तत्कालीन सभी हाव-भाव तथा मुद्राओं का उल्लेख किया गया है:
                  अद्भुत  जोट  स्याम   स्यामा   बर  विहरत   वृन्दावन   चारी। 
                  रूप  कांति  बन  विभव  महिमा  रटत बन्दि श्रुति मति हारी।।
                  पद  विलास  कुनित   मनि  नूपुर  रुनित  मेखला  कुनकारी। 
                  गावत  हस्तक  भेद  दिखावत  नाचत  गति मिलवत न्यारी।।
                  किलकत हँसन कुरखियनि चितवत प्यारे तन प्रीतम प्यारी। 
                  कंठ  बाहु  धरि  मिलि  गावत  हैं  ललितादि  सखी बलिहारी।।
                  मूरतिवंत  सिंगार  सुकीरत  निरखि  चकित मृग अलि नारी। 
                  कृष्णदास प्रभु गोवर्धन धर अतिसय रसिक वृषभानु कुँवारी।।
       कृष्ण की रास-लीला में प्रवेश पाकर उस रस का प्रत्यक्ष रूप से आस्वादन करना कृष्णदास की साधना का एक मात्रा लक्ष्य था। किन्तु वार्ताओं में उनकी अंत की स्थिति का जो वर्णन उपलब्ध होता है उससे यही पता चलता है कि उन्हें इस जीवन में यह लक्ष्य प्राप्त न हो सका। यही कारण है की इस चाह को अभिव्यंजित करने वाले पदों में एक भक्त की भावना अधिक लक्षित होती है;
                 हरिमुख देखे ही जीजै। 
                 सुनहु   सुन्दरी   नैन   सुभग   पुट   स्याम   सुधा   पीजै।।
                 न करि विलम्ब रसिक मनोहर गति पलु पलु सुख छीजै। 
                 बासर   केलि   नवल  जोबन  धन  बिलसि  लाभ   लीजै।।
                 गिरिधर  लाल  उरझि   बीथिन   में   बर   भूषन   कीजै। 
                 पद्मराग      रज    कृष्णदास    को     न्यौछावर     दीजै।।

साभार स्रोत :

  • ब्रजभाषा के कृष्ण- काव्य में माधुर्य भक्ति :डॉ रूपनारायण:हिन्दी अनुसन्धान परिषद् दिल्ली विश्वविद्यालय दिल्ली के निमित्त :नवयुग प्रकाशन दिल्ली -७ 
  • अष्टछाप और वल्लभ सम्प्रदाय :डॉ दीनदयाल गुप्त 
  • हिन्दी  साहित्य का इतिहास;आचार्य रामचन्द्र शुक्ल 

गुरुवार, 15 जून 2017

कुम्भनदास

  By : अशर्फी लाल मिश्र

                                                         अशर्फी लाल मिश्र                                                                              
                                                           कुम्भनदास 

                                                                       
जीवन परिचय : कुम्भनदास की  आचार्य वल्लभ के प्रमुख शिष्यों में गणना की जाती है। वार्ताओं के अनुसार कुम्भनदास श्रीनाथ के प्राकट्य के समय १० वर्ष के थे। श्री नाथ जी का प्राकट्य वि० सं० १५३५ है इस आधार पर इनका जन्म संवत १५२५ विक्रमी ठहरता है। डा० दीनदयाल गुप्त ने इनकी मृत्यु १६३९ विक्रमी स्वीकार की है। (अष्टछाप और वल्लभ सम्प्रदाय :पृष्ठ २४८ )
           कुम्भनदास का जन्म ब्रज में ही रहने वाले गोरवा क्षत्रिय घराने में हुआ। आर्थिक दृष्टि से आप सम्पन्न न थे। थोड़ी सी जमीन जीविका निर्वाह के लिए थी। किन्तु इतने पर भी किसी का दान लेने में संकोच होता था। इसीलिये महाराजा मान  सिंह के स्वयं  देने पर भी इन्होने कुछ भी स्वीकार नहीं किया।
          कुम्भनदास स्वभाव से सरल पर स्पष्टवादी थे। धन अथवा मान-मर्यादा की इच्छा इन्हें छू तक न गई थी। अकबर ने फतहपुर सीकरी बुलाकर इनका अत्यधिक सम्मान किया। पर श्रीनाथ जी के दर्शनों के अभाव में वहाँ इन्हें अत्यधिक दुख हुआ। इस बात की अभिव्यक्ति कुंभनदास ने अपने निम्न पद में की है :
                     संतन को कहा सीकरी सों काम। 
                     आवत    जात  पनहियाँ   टूटी,  बिसरि  गयो  हरि   नाम।।
                     जिनको मुख देखे दुख उपजत,तिनको करनी पड़ी सलाम।
                     कुंभनदास     लाल   गिरधर   बिनु   और   सबै    बेकाम।।
          गोकुलनाथ रचित वार्ताओं से स्पष्ट है कि कुम्भनदास,श्रीनाथ जी के एकांत सखा थे। अतः उनकी सभी लीलाओं में ये साधिकार भाग लेते थे। पर इनकी विशेष आसक्ति कृष्ण की किशोर-लीलाओं के प्रति थी।

काव्य-रचना :
*स्फुट पद (वर्षोत्सव ग्रंथों में ) विद्या-विभाग कांकरोली में पाण्डुलिपि उपलब्ध।

माधुर्य भक्ति :
         कुम्भनदास के आराध्यदेव श्रीकृष्ण हैं। वे वास्तविक रूप में जगत के स्रष्टा ,पालक और संहारक हैं। इसीलिये समस्त संसार उनकी पद-वन्दना करता है। वे लीला के लिए नाना प्रकार के अवतार धारण कर भक्तों की रक्षा करते है और अपनी विविध लीलाओं का विस्तार कर उन्हें आनन्दित  करते हैं। मधुर-लीलाओं के विस्तार के लिए श्रीकृष्ण की आदि रस-शक्ति राधा उनका सदा साथ देती हैं। इन दोनों की सुन्दरता,गुण और प्रेम अद्वितीय हैं। अतएव राधा-कृष्ण की जोड़ी भक्तों के लिए सदा  धेय है।
                    बनी राधा गिरधर की जोरी। 
                    मनहुँ परस्पर कोटि मदन रति की सुन्दरता  चोरी।।
                    नौतन  स्याम  नन्दनन्दन ब्रषभानु सुता नव गोरी। 
                     मनहुँ  परस्पर बदन चंद को पिवत  चकोर चकोरी। 
                    मनहुँ परस्पर बढ्यो रंग अति उपजी प्रीति न थोरी।।
        राधा के लिए कुम्भनदास ने कई स्थलों पर स्वामिनी शब्द का व्यवहार किया है जिससे ज्ञात होता है कि वे राधा को कृष्ण की स्वकीया मानते थे। राधा के अतिरिक्त गोपियाँ भी कृष्ण को पति रूप से  चाहती हैं। गोपियों का कृष्ण  प्रति प्रेम आदर्श प्रेम है। कृष्ण की रूप माधुरी और मुरली माधुरी से मुग्ध हो वे अपना सभी कुछ कृष्ण-चरणों में न्यौछावर कर देती हैं। तब उनकी यही एक मात्र कामना है कि हमें कृष्ण पति-रूप  से प्राप्त हो जाएँ। इसके लिए वे लोगों का उपहास भी सहने को भी प्रस्तुत हैं:
                     हिलगनी कठिन है या मन की। 
                     जाके  लिए  देखि  मेरी सजनी  लाज जान  सब तन की।। 
                     धर्म  जाउ  अरु  हँसो  लोग  सब  अरु  आवहु कुल गारी। 
                     तोऊ   न  रहे   ताहि   बिनु  देखें  जो  जाको   हितकारी।।
                     रस लुब्धक एक निमेष  न छाँड़त ज्यों अधीन मृग गाने। 
                     कुम्भनदास   सनेहु   मरमु   श्री   गोवर्द्धन   धार   जाने।।
         इसी कारण गोपियाँ सदा कृष्ण-दर्शन के लिए लालायित रहती हैं। उनके इस तीव्र प्रेम को देखकर कृष्ण यथावसर साथ  हास-परिहास करके उन्हें अपना स्पर्श-सुख प्रदान  हैं:
                     नैननि टगटगी लागि रही। 
                     नखसिख   अंग  लाल   गिरधर  के   देखत  रूप   बही।।
                    प्रातःकाल   घर  ते  उठि  सुन्दरि  जात  ही  बेचन दही। 
                    ह्वै  गई  भेंट  स्याम  सुन्दर  सों  अधभर पथ बिच ही।
                     घर व्यौहार सकल सुधि भूली ग्वालिन मनसिज दही। 
                    कुंभनदास    प्रभु  प्रीति  बिचारी  रसिक  कंचुकी   गही।।
         प्रेम-लीला के पदों में संयोग और वियोग दोनों पक्षों का वर्णन है। संयोग के पदों में सुरतान्त छवि, संभोग-सुख हर्षिता,अभिसारिका तथा मानिनी नायिका का वर्णन विशेष है। संभोग-हर्षिता नायिका के इस चित्रण में कवि ने व्यंजनापूर्ण शैली का प्रयोग किया है:
                    मिले की फूलि नैना कहि देत। 
                    स्याम  सुन्दर  मुख  चुंबन परसें नाचत मुदित अनेरे।।
                    नन्दनन्दन   पै   गये   चाहत  हैं,  मारग  श्रवननु घेरे। 
                    कुम्भनदास प्रभु गिरधर रस भरे करत चहूँ दिस फेरे।।
        संयोग के पदों की अपेक्षा कुम्भनदास के वियोग के पदों में अधिक संवेदनशीलता है। इन्हें पढ़ कर यही लगता है कि वियोग-भावना में कवि का मन अधिक रमता है। श्रीकृष्ण के मथुरा चले जाने पर उनकी क्रीड़ाओं का स्मरण करते हुए गोपी अपने उद्गारों को जिस रूप में प्रगट करती हैं ,उसमें निश्चय ही प्रभावित करने की शक्ति है :
                    कहा करों वह सुरति मेरे जिय ते न टरई। 
                    सुन्दर  नंद  कुँवर  के  बिछुरे  निस  दिन नींद न परई।।
                    बहु बिधि मिलनि प्रानप्यारे की एक निमेष न बिसरई। 
                    वे गुन समुझि समुझि चित नैननि नीर निरन्तर ढरई।।
                    कछु  न  सुहाय  तलाबेली  मनु बिरह अनल तन जरई। 
                    कुंभनदास   लाल   गिरधर  बिनु  समाधान  को  करई।।

साभार स्रोत :

  • अष्टछाप और वल्लभ सम्प्रदाय :डॉ दीनदयाल गुप्त 
  • ब्रजभाषा के कृष्ण- काव्य में माधुर्य भक्ति :डॉ रूपनारायण:हिन्दी अनुसन्धान परिषद् दिल्ली विश्वविद्यालय दिल्ली के निमित्त :नवयुग प्रकाशन दिल्ली -७ 
  • विद्या-विभाग कांकरोली में पाण्डुलिपि उपलब्ध

              

मंगलवार, 13 जून 2017

परमानन्ददास

By अशर्फी लाल मिश्र
                                                                अशर्फी लाल मिश्र 

परिचय :
         महाप्रभु वल्लभाचार्य के प्रसिद्ध शिष्य परमानन्ददास का समय हिन्दी साहित्य के इतिहास-लेखकों  ने  वि ० सं ० १६०६ के आसपास स्वीकार किया है (हिन्दी साहित्य का इतिहास :आचार्य रामचन्द्र शुक्ल :१७७ ) किन्तु इनके  निश्चित जन्म संवत तथा मृत्यु संवत के सम्बन्ध में लेखकों ने कोई चर्चा नहीं की। वल्लभ सम्प्रदाय में यह प्रसिद्द है कि परमानन्ददास वल्लभाचार्य से १५ वर्ष छोटे थे। वल्लभाचार्य का जन्म १५३५ विक्रमी ,वैशाख कृष्ण पक्ष एकादशी को हुआ था। तदनुसार परमानन्ददास का जन्म वि ० सं ० १५५० स्थिर होता है। इस मत की पुष्टि इससे भी होती है कि परमानन्ददास अपने विवाह को टालकर अड़ेल (प्रयाग )आये और यहीं उनकी सर्वप्रथम वल्लभाचार्य से भेंट हुई। यह भेंट और दीक्षा  विक्रम संवत १५७७ में हुई। (वल्लभ दिग्विजय :गो० यदुनाथ :पृष्ठ ५३ ) ये संगीत में पारंगत थे।
         परमानन्ददास के माता-पिता के सम्बन्ध में अभी तक कुछ पता नहीं है। किन्तु उनकी वार्ता से स्पष्ट होता है कि वे कन्नौज के रहने वाले ब्राह्मण कुल के थे। (चौरासी वैष्णवन की वार्ता :पृष्ठ ७८८ ). उनके माता-पिता बहुत धनी थे अतः परमानन्ददास का  बचपन सुख-चैन से व्यतीत हुआ। बचपन से ही इनके शिक्षा की उचित व्यवस्था थी ,फलतः ये एक विद्वान ,संगीतज्ञ तथा काव्य-रचना में निपुण हो सके।
         परमानन्ददास की बचपन से  ही आध्यात्मिक चर्चा में विशेष रूचि थी। ऐसा प्रसिद्ध है कि एक बार  आप  मकर पर्व पर स्नान करने के लिए प्रयाग गए। वहाँ महाप्रभु वल्लभ से भेंट हो जाने पर इन्हींने उनसे दीक्षा ग्रहण की और उन्हीं के साथ रहने लगे।  इस प्रकार महाप्रभु  के साथ घूमते हुए  ये गोवर्धन पर आ गए। सुरभि कुण्ड उनका स्थाई निवास स्थान था। (परमानन्द सागर :डा० गोवर्द्धननाथ शुक्ल :भूमिका :११ ) इस स्थान पर रहते हुए वि०  संवत १६४१ में इन्होंने अपने नश्वर शरीर का परित्याग कर दिया। (भाव-प्रकाश :गो० हरिराय :पृष्ठ ८३३ )

रचनाएँ :

  1. दान लीला 
  2. उद्धव लीला 
  3. ध्रुव चरित्र 
  4. संस्कृत रत्नमाला 
  5. दधि लीला 
  6. परमानन्ददास जी के  पद 
  7. परमानन्द सागर 
   उपर्युक्त ग्रन्थों में   पहले पाँच ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है छठा ग्रन्थ सातवें का ही अंगमात्र है। उनकी एक मात्र प्रामाणिक कृति परमानन्द सागर है। 

माधुर्य भक्ति :
          परमानन्ददास  के  उपास्य   रसिक नन्दनन्दन हैं। रसिक शिरोमणि तथा रस-रूप  होने के    साथ-साथ श्रीकृष्ण की रूप माधुरी भी अपूर्व है।  इस रूप-माधुरी का एक बार पान करके ह्रदय सदा  उसी के  लिए लालायित रहता है। इसी कारण कवि ने कहा है कि श्रीकृष्ण को पाकर सुन्दरता की शोभा बढ़ी है क्योंकि सौन्दर्य के वास्तविक आश्रय श्रीकृष्ण ही हैं। 
                सुन्दरता गोपालहिं सोहै। 
                कहत न बने नैन मन आनन्द जा देखत रति नायक मोहै।।
                सुन्दर   चरण  कमल   गति   सुन्दर   गुंजाफल  अवतंस। 
                सुन्दर  बनमाला उर  मंडित  सुन्दर गिरा मनों कल हंस।।
                सुन्दर  बेनु   मुकुट   मनि   सुन्दर  सब अंग स्याम सरीर। 
                सुन्दर   बदन   अवलोकनि   सुन्दर   सुन्दर  ते   बलवीर।।
                वेद पुरान  निरूपित बहु विधि ब्रह्म नराकृति रूप निवास। 
                बलि बलि जाऊँ मनोहर मूरति ह्रदय बसों परमानन्ददास।। :(परमानन्द सागर :डा० गोवर्द्धननाथ शुक्ल :पृष्ठ ४४९ )
        परमानन्ददास ने राधा और कृष्ण के प्रेम की चर्चा कई पदों में की है। दोनों का प्रेम ही सच्चा प्रेम है। .इस कारण दोनों की जोड़ी अपूर्व  है। केवल प्रेम की दृष्टि से ही नहीं वल्कि रूप और गुण दोनों में समान  हैं।  इसीलिए भक्त राधा-कृष्ण और उनकी लीलाओं का सतत गान तथा ध्यान करके आनन्द-लाभ करता है।
                 आजु बनि दम्पति वर जोरी। 
                 सांवल   गौर  बरन   रूप   निधि नन्द  किसोर ब्रजभान किसोरी।।
                 एक   सीस    पचरंग    चूनरी    एक   सीस   अद्भुत    पर    षोरी । 
                 मृगमद   तिलक  एक   के   माथे     एक   माथे  सोहै  मृदु   रोरी।।
                 नख सिख उभय भाँति भूषन छवि रितु बसंत खेलत मिलि होरी। 
                 अति   सै  रंग  बढ्यो  'परमानन्द '  प्रीति  परस्पर  नाहिन थोरी।। (परमानन्द सागर :पृष्ठ ७७ )
   
       राधा के प्रेम के अतिरिक्त  परमानन्ददास ने गोपियों के प्रेम का भी वर्णन अनेक पदों में किया है। कृष्ण की रूप माधुरी से मुग्ध गोपियाँ उनके चरणों में अपना तन,मन समर्पित कर देती हैं। कृष्ण की प्राप्ति के लिए वे कठोर से कठोर व्रत तथा उपवास आदि का पालन करती हैं। और उनके लिए वे कुल के  बन्धन ,समाज के बन्धन इहलोक तथा परलोक सभी कुछ छोड़ने को प्रस्तुत हैं इसी में आत्मसमर्पण का सर्वोत्कर्ष है :
                  अरी गुपाल सों मेरो मन मान्यों,कहा करैगो कोउ  री। 
                  हौं तो  चरन  कमल  लपटानी  जो  भावै  सो होउ  री।। 
                  माइ  रिसाई, बाप  घर  मारै,हंसे  बटाऊ   लोय    री ।
                 अब तो जिय ऐसी बनि आई विधना रच्यो संजोग री।। 
                  बरु  ये  लोक  जाइ  किन मेरो अरु परलोक नसाइ री। 
                  नंद नंदन हौं तऊ  न छाँड़ों मिलोंगी निसान बजाई री।। 
                  बहुरयो यह तन धरि कहाँ पैहौं वल्लभ भेष मुरारि री। 
                  परमानन्द स्वाभी'  के  ऊपर   सरबसु  देहौं वारि री।। (परमानन्द सागर :पृष्ठ  १५० )
        गोपियों की इस प्रेम-तीव्रता को देखकर ही कृष्ण नाना प्रकार से उनकी मनोकामना पूर्ण करते हैं ~
                   नैक लाल टेको मेरी बहियाँ। 
                   औघट  घाट  चढ्यो  नहिँ  जाई  रपटत  हौं कालिन्दी  महियाँ।।
                   सुन्दर स्याम कमल दल लोचन देखि स्वरुप ग़ुबाल अरुझानी। 
                   उपजी  प्रीति  काम  उर  अन्तर  तब   नागर  नागरी  पहचानी।।
                   हंसि ब्रजनाथ  गह्यो  कर  पल्लव  जाते  गगरी  गिरन न पावै। 
                   'परमानन्द 'ग्वालिन सयानी कमल नयन कर परस्योहि भावै।।(परमानन्द सागर :पृष्ठ २५३  )
          परमानन्ददास ने गोपियों और कृष्ण की प्रेम-लीलाओं का वर्णन संयोग और वियोग दोनों पक्षों में किया है। संयोग पक्ष की  प्रेम-लीलाओं का आरम्भ  बाल्य कालीन लीलाओं में होता है। बचपन का यह स्नेह नाना प्रकार के हास-परिहास के बीच प्रणय में   परिवर्तित हो  जाता है। इसी हास-परिहास एवं छेड़-छाड़ का रूप हमें दानलीला के पदों में लक्षित होता है।  ऐसे ही कुछ पदों से रति-लीला की व्यंजना होती है। पर यह केवल विनोद है। इस पद की अन्तिम पंक्ति से  यह बात पूर्ण रूपेण स्पष्ट हो जाती है।
                    काहे को सिथिल किए मेरे पट। 
                    नंद  गोप  सुत  छांड़ि  अटपटी बार बार वन में कत रोकत बट।। 
                    कर लंपट परसो  न कठिन कुच अधिक बिधा रहे निधरक घट। 
                    ऐसो  बिरुध  है  खेल  तुम्हारो  पीर  न जानत गहत पराई लट।। 
                    कहूँ  न  सुनी  कबहूँ   नहिँ देखी   बाट परत  कालिन्दी  के तट। 
                    'परमानन्द 'प्रीति  अन्दर की  सुन्दर स्याम विनोद सुरत नट।। (परमानन्द सागर :पृष्ठ ५८ )
        परमानन्ददास ने अपने पदों में राधा-कृष्ण अथवा गोपी-कृष्ण के विलास का स्पष्ट रूप से कहीं भी वर्णन नहीं किया है।  उन्होंने विलास का केवल संकेत मात्र अपने पदों में किया है। यद्यपि गोपियों में भी श्रीकृष्ण को पति रूप में प्राप्त  इच्छा लक्षित होती है,किन्तु उसकी स्थिति राधा से भिन्न है। सिद्ध और साधक में जो अन्तर है वही अन्तर हमें राधा और गोपियों में लक्षित होता है। यही कारण है कि कृष्ण राधा के चरण-चाँपते हुए भी हमारे सम्मुख आते हैं,किन्तु गोपियाँ सर्वत्र कृष्ण की पद-वन्दना करते हुए दृष्टिगत होती हैं ,गोपियाँ रति की अभिलाषा करती हैं ,किन्तु रति-सुख केवल राधा को ही प्राप्त होता है :
                     मदन गोपाल बलैये लैहौं। 
                     बृंदा  बिपिन  तरनि  तनया  तट  चलि ब्रजनाथ आलिंगन दैहौं।।
                     सघन निकुंज सुखद रति आलय नव कुसुमनि की सेज बिछैहौं। 
                     त्रिगुन समीर पंथ पग बिहरत मिलि तुम संग सुरति सुख पैहौं।।
                     अपनी  चोंप   ते  जब   बोलहुगे   तब  गृह  छाँड़ि  अकेली   ऐहौं। 
                     'परमानन्द 'प्रभु  चारु बदन कौ उचित उगार मुदित  ह्वै खैहौं।।(परमानन्द सागर :पृष्ठ १२३ )
       तथा ~
                   राधे जू हारावली टूटी। 
                   उरज कमल दल माल   अरगजी वाम कपोल अलक  लट छूटी।।
                   बर  उर  उरज  करज  कर  अंकित बांह जुगल बलयावलि फूटी। 
                    कंचुकी  चीर  बिबिध  रंग  रंगति  गिरधर  अध र माधुरी घूटी।।
                   आलस  बलित   नैन  अनियारे   अरून   उनींदे   रजनी    षूटी। 
                   'परमानन्द ' प्रभु सुरत  सने  रस मदन  नृपति  की सेवा लूटी।।(परमानन्द सागर :पृष्ठ १३८ )

साभार स्रोत:








  • परमानन्द सागर :डा० गोवर्द्धननाथ शुक्ल 
  • ब्रजभाषा के कृष्ण- काव्य में माधुर्य भक्ति :डॉ रूपनारायण:हिन्दी अनुसन्धान परिषद् दिल्ली विश्वविद्यालय दिल्ली के निमित्त :नवयुग प्रकाशन दिल्ली -७ 
  • हिन्दी साहित्य का इतिहास :आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
  • वल्लभ दिग्विजय :गो० यदुनाथ
  •  चौरासी वैष्णवन की वार्ता
  •  भाव-प्रकाश :गो० हरिराय



  •                              


    शुक्रवार, 9 जून 2017

    वात्सल्य रस के प्रधान कवि : सूरदास

     By :अशर्फी लाल मिश्र
    अशर्फी लाल मिश्र 
                                                 
                                                                             
    सूरदास 
                                                                                                                                    
      सूरदास  की प्रशंसा में ठीक ही कहा गया है कि

                            सूर    सूर   तुलसी   शशि ,  उडगन  केशवदास | 
                           अब के सब खद्योत सम ,जँह तँह करत प्रकास || 

    इतिवृत्त :सूरदास उन कवियों में से  हैं,जिन पर केवल वल्लभ सम्प्रदाय को नहीँ वरन हिंदी साहित्य को गर्व है। इसी कारण इनके विषय में अधिक से   अधिक जानकारी प्राप्त करने का प्रयत्न हुआ है। इनके जीवन-चरित पर प्रकाश  डालने के लिए साहित्य के इतिहासकारों तथा अनुसन्धान कर्ताओं ने अन्तः साक्ष्य और बाह्य साक्ष्य दोनों का ही आश्रय लिया है और जहाँ इनसे भी काम नहीं चला वहाँ अनुमान से सहायता ली गई। इसी कारण इनके जन्म संवत आदि के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है।
      *आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने सूरदास का जन्म-संवत १५४० विक्रमी और मृत्यु-संवत १६२० विक्रमी माना है। (हिंदी साहित्य का इतिहास :पृष्ठ १६१ ) आचार्य शुक्ल की यह मान्यता मुख्य रूप से साहित्य लहिरी पर आधारित है।
    *आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के विचार में यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि साहित्य लहिरी के रचयिता यही प्रसिद्ध सूरदास थे या कोई अन्य। अतः उन्होंने आचार्य शुक्ल की मान्यता विवाद रहित स्वीकार नहीं किया (हिंदी साहित्य :पृष्ठ १७६-७७).। स्वयं द्विवेदी जी ने सूरदास के जन्म-संवत आदि  के विषय में कोई निश्चित मत नहीं दिया। किन्तु सूरदास के समय की जो रूपरेखा उनके इतिहास में मिलती है ~ वह प्रायः वही है जो आचार्य शुक्ल की है।
    *डा ० दीनदयाल गुप्त ने इनका जन्म-संवत १५५५ विक्रमी और मृत्यु-संवत १६ ३ ८  अथवा १६३९ है।
    *डा ० मुंशीराम शर्मा का मत इन सभी विद्वानों से भिन्न है। उन्होंने सूर-सौरभ में प्रदत्त अन्तःसाक्ष्य और बाह्य साक्ष्य के आधार पर यह सिद्ध किया है कि सूरदास संवत १५५५ के  लगभग उत्पन्न हुए और संवत १६२ ८ के आस-पास तक जीवित रहे। (सूर-सौरभ :पृष्ठ ५३ ) .
             'चौरासी वैष्णवन की वार्ता ' के अनुसार सूरदास का जन्म स्थान रुनकता या रेणुका क्षेत्र है। श्री हरिराय जी की वार्ता से पता चलता है कि सूरदास दिल्ली से चारकोस (१२ किलोमीटर ) दूर सीही ग्राम के सारस्वत कुल में पैदा हुए थे। (गो ० हरिराय जी कृत सूरदास की वार्ता ;सम्पादक प्रभुदयाल मीतल :पृष्ठ १-२ ).
    *श्री वल्लभाचार्य जी की भेंट के समय मथुरा-वृन्दावन के बीच गऊघाट पर रहा करते थे। सूरदास स्वभाव से विरक्त थे अतः एकान्त में भगवान् के समक्ष अपने भाव व्यक्त किया करते थे। इनके इसी विरक्त-भाव से आकर्षित होकर इनके सेवक बन गए। उस समय के पदों में इन्होंने अपने आपको अशुची ,अकृती ,अपराधी  आदि कहा है। पर वल्लभाचार्य से मिलने के उपरान्त सूर  वास्तव में 'सूर ' हो गए और अपनी भक्ति-निष्ठां तथा अनन्यता के आधार पर एक दिन भगवान् से यह कहने का  साहस भी कर सके ~~
                               बाँह छुड़ाए जात हो निबल जानि के मोहि। 
                               हिरदै  तै  जब  जाहुगे  मरद  बदौंगो तोहि।। 
               कुछ विद्वानों का विचार है कि सूरदास जन्मांध थे,अन्य विद्वान इससे सहमत नहीं हैं। (हिंदी साहित्य ;आचार्य हजारी प्रसाद  द्विवेदी :पृष्ठ :१७३-७४ ) दोनों मतों में से कौनसा  ठीक है , यह निर्णय करना सहज नहीं है। किन्तु तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि आचार्य वल्लभ से भेंट के समय सूरदास चर्मचक्षुओं की सेवा से रहित थे। इसीलिये आचार्य को इनके अंतर्नयनोंं  को खोल देने में विशेष असुविधा नहीं हुई तत्पश्चात सूरदास ने भगवान् की लीलाओं में ही अपने आप को लीन कर दिया।
                गोकुलनाथ कृत वार्ताओं से पता चलता है कि सूरदास को महाप्रभु ने श्रीनाथ जी की कीर्तन सेवा सौंपी थी। अतः इसी सेवा के निर्वाह-निमित्त इन्होंने लीला-सागर की रचना की। किन्तु श्रीनाथ जी की इस सेवा को इन्हें विवश होकर शीघ्र ही छोड़ना पड़ा। तदुपरान्त ये भगवान् की रास-क्रीड़ा-भूमि परासौली गांव में चले गए और वहीं पर एक दिन अपनी चित्त-वृत्तियों को राधा-कृष्ण की प्रेम-लीलाओं में नियोजित कर यह गीत गाते  हए~~         
                               बलि  बलि  बलि  हो  कुमर  राधिका नंदसुवन जासों  रति मानी। 
                               वे अति चतुर तुम चतुर शिरोमनि प्रीति करी कैसे होत है छानी।।
                               वे  जु  धरत  तन  कनक  पीत  पट  सो  तो  सब तेरी गति ठानी। 
                               ते  पुनि   श्याम  सहेज  वे   शोभा अंबर मिस अपने उर  आनी।।
                               पुलकित अंग अब ही ह्वै आयो निरखि  देखि निज देह सिरानी। 
                              सुर    सुजान   सखी    के   बूझे   प्रेम   प्रकश   भयो   बिहसानी।।
    भगवान् की लीला में लीन हो गए।

    काव्य-रचना :

    • सूरसागर 
    • सूर-सारावली (सूरसागर की अनुक्रमणिका )
    • साहित्य-लहरी (कुछ विद्वानों के मतानुसर )
    माधुर्य भक्ति :
              सूरदास ने अपने उपास्य राधा-कृष्ण के स्वरुप को निम्न पद के द्वारा स्पष्ट किया है ;
                           ब्रजहिं बसे आपुहि बिसरायो। 
                           प्रकृति  पुरुष   एकै   करि   जानों  बातन   भेद  करायो।।
                           जल थल जहाँ रहो तुम बिन नहिं भेद उपनिषद गायो। 
                           द्वै  तनु जीव  एक हम तुम दोऊ सुख कारन उपजायो।।
                           ब्रह्म  रूप  द्वितीया  नहिं कोई तव मन त्रिया जनायो। 
                           सूर  स्याम मुख देखि अलप हँसि  आनन्द पुंज बढ़ायो।।(सूरसागर ;स ० नन्ददुलारे बाजपेयी;पृष्ठ ८४१)
              स्पष्ट है कि राधा प्रकृति है और कृष्ण पुरुष हैं। अपने इस रूप में अभिन्न हैं। किन्तु लीला-विस्तार के लिए तथा भक्ति के प्रसार के लिए उन्होंने दो शरीर धारण किये हैं :
                           प्रान  इक  द्वै देह कीन्हें,भक्ति-प्रीति-प्रकास। 
                           सूर-स्वाम  स्वामिनी मिलि,करत रंग-विलास।। 
               राधा और कृष्ण का प्रेम सहज है ~ क्योंकि उसका विकास धीरे-धीरे बाल्य-काल से ही हुआ है। दोनों का प्रथम परिचय रवि-तनया के तट पर सहज रूप से होता है। एक दूसरे के सौन्दर्य,वाक्चातुरी तथा क्रीड़ा-कला पर मुग्ध वे परस्पर स्नेह-बंधन में बंध जाते हैं। यही उनके प्रेम का प्रारम्भ है :
                            बूझत स्याम कौन तू गोरी। 
                            कहाँ  रहति  काकी  है   बेटी,  देखी    नहीं   कहूँ   ब्रज    खोरी।।
                            काहे  कौं   हम  ब्रज-तन  आवति,  खेलति  रहति आपनी पोरी। 
                            सुनत रहति स्रवननि नंद-ढोटा,करत फिरत माखन दधि चोरी।।
                            तुम्हरौ   कहा  चोरि   हम   लैहैं,  खेलन  चलौ संग मिलि जोरी। 
                            सूरदास   प्रभु   रसिक-सिरोमनि   बातनि  भुरइ राधिका भोरी।।(सूरसागर: पृष्ठ ४९७ )
              राधा और कृष्ण का सौन्दर्य भी अपूर्व है। निम्न पद में वर्णित राधा और कृष्ण दोनों का सौन्दर्य दर्शनीय है ~~ 
                           खेलन हरि  निकसे ब्रजखोरी। 
                           कटि   कछनी    पीताम्बर   बाँधे,  हाथ    लए   भौंरा,   चकडोरी।।
                           मोर-मुकुट,कुंडल स्रवननि बर,दसन-दमक दामिमि-छवि छोरी। 
                           गए  स्याम   रवि-तनया   कैं तट   अंग  लसत  चंदन  की खोरी।।
                           औचक   ही   देखी   तहँ   राधा,  नैन   विसाल   भाल   दिये रोरी। 
                           नील   बसन   फरिया   कटि   पहरे,बैनी  पीठि  रुलति झकझोरी।।
                           संग  लरिकनीं  चलि  इत आवति,दिन-थोरी,अति छवि तन गोरी। 
                           सूर    स्याम   देखत   ही   रीझे,  नैन   नैन   मिलि   परी   ठगोरी।।(सूरसागर )
              राधा और कृष्ण की सुन्दरता के साथ-साथ सूर ने उनके चातुर्य का भी वर्णन कई पदों में किया है। सुन्दरता और चतुरता में समानता के साथ-साथ राधा और कृष्ण का प्रेम भी समान है। जहाँ  राधा,कृष्ण-प्रेम में आत्म-सुधि भूल कर खाली मटकी बिलोने लगती हैं ~वहाँ कृष्ण भी राधा-प्रेम के वश वृषभ दोहन प्रारम्भ कर है ;
                            आयसु   लै   ठाढ़ी  भई ,कर  नेति सुहाई। 
                            रीतौ  माट  बिलोवई, चित्त जहाँ कन्हाई।।
                            उनके मन की कह कहौं,ज्यौं दृष्टि लगाई। 
                            लैया  नोई वृ  षभ   सों,   गैया   बिसराई।।
                            नैननि में जसुमति लखी,दुहुँ की चतुराई। 
                            सूरदास   दंपति-दसा,  कापै  कहि   जाई।। (सूरसागर)
           सूर ने अनन्य-प्रेमी राधा-कृष्ण और गोपी- कृष्ण की प्रेम लीलाओं का अत्यधिक सरस् वर्णन सूरसागर में किया है। ये प्रेम-लीलाएं संयोग और वियोग दोनों पक्षों की हैं संयोग पक्ष की लीलाओं में ~` दानलीला,मानलीला,रासलीला,जल-क्रीड़ा,झूलन,विहार आदि सभी का वर्णन किया है। यह प्राकृतिक-सुषमा भाव-उद्दीपन के सर्वथा योग्य है। रास के इस वर्णन से इसी की पुष्टि होती है:
                            बिहरत रास रंग गोपाल। 
                            नवल स्यामा संग सोहति,नवल सब ब्रजबाल।।
                            सरद निसि अति नवल उज्ज्वल,नवलता बन धाम। 
                            परम निर्मल पुलिन जमुना,कल्प तरु विस्राम।।
                           कोस द्वादस रास परिमित,रच्यो नंदकुमार। 
                            सूर-प्रभु सुख दियो निसि रमि,काम कौतुक हार।। (सूरसागर)
             सूरदास की ह्रदय-विह्वलता तथा वाक्-चातुरी उनके भ्रमर-गीत में लक्षित होती है। इन दोनों गुणों के कारण भ्रमर-गीत सूरदास की अपूर्व कृति कही  जा  सकती है।एक ओर सूर ने इसमें सभी वियोग दशाओं का वर्णन किया है दूसरी ओर भक्ति-पक्ष की पुष्टि के लिए सभी युक्तियाँ  अत्यधिक मार्मिक  दंग से प्रस्तुत की हैं।  कृष्ण की अतीत की बातों का स्मरण करती हुई राधा की  दशा का वर्णन किसी भी सहृदय पाठक को भाव-विभोर करने में समर्थ है ~~
                            मेरे मन इतनी सूल रही। 
                            वे  बतियाँ  छतियाँ  लिखि राखी,जे नंदलाल कही।।
                           एक   द्यौस    मेरे  गृह   आये,  हौं   ही  महत दही। 
                           रति मांगत मैं मान कियो,सखि,सो हरि गुसा गही।।
                           सोचति अति पछताति राधिका,मुरछित धरनि ढही। 
                           सूरदास-प्रभु   के  बिछुरे  तैं,  बिथा   न   जात   सही।। (सूरसागर)
    साभार स्रोत :

    • अष्टछाप ;डा ० धीरेन्द्र वर्मा 
    • सूरसागर ;स ० नन्ददुलारे बाजपेयी
    • हिन्दी  साहित्य का इतिहास: आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
    • ब्रजभाषा के कृष्ण- काव्य में माधुर्य भक्ति :डॉ रूपनारायण:हिन्दी अनुसन्धान परिषद् दिल्ली विश्वविद्यालय दिल्ली के निमित्त :नवयुग प्रकाशन दिल्ली -७ 
    • हिंदी साहित्य ;आचार्य हजारी प्रसाद  द्विवेदी
    • गो ० हरिराय जी कृत सूरदास की वार्ता ;सम्पादक प्रभुदयाल मीतल
    ©  अशर्फी  लाल मिश्र



    बुधवार, 7 जून 2017

    राजवंश से वैराग्य की ओर :मीराबाई



    By : अशर्फी लाल मिश्र  
    अशर्फी लाल मिश्र 
                                                                                                                                                                    
    मीराबाई 
                                                                         


                 प्रसिद्ध कवियत्री मीरा जिनके पदों का गायन उनकी भक्ति भावना तथा गेयता एवं मधुरता के कारण भारत के प्रायः सभी  भागों में होता है,राजस्थान की रहने वाली थीं। मीरा  से साधारण जनता तथा विद्वानों का परिचय उनके गीतों के कारण  था। ये गीत भी लिखित रूप में न होने के कारण अपने आकार-प्रकार में भाषा और भाव की दृष्टि से बदलते चले गए। इसी का यह परिणाम हुआ कि आज एक भाव के पद विभिन्न भाषाओँ में विभिन्न रूपों में उपलब्ध होते हैं किन्तु इन पदों द्वारा प्राप्त प्रसिद्धि के कारण साहित्यिक तथा ऐतिहासिक विद्वानों की जिज्ञासा मीरा के सम्बन्ध में आवश्यक परिचय प्राप्त करने की हुई। ऐतिहासिक दृष्टि से कर्नल टॉड तथा स्ट्रैटन ने इनके जीवन पर प्रकाश डालने की चेष्टा की और मुंशी देवी प्रसाद मुंसिफ ने मीराबाई  का जीवन और उनका काव्य यह पुस्तक लिखकर सर्व प्रथम साहित्यिक दृष्टि से उनके सम्बन्ध में विद्वानों को परिचित कराया।

    जीवन वृत्त :
             मीराबाई जोधपुर के संस्थापक सुप्रसिद्ध ,राठौड़ राजा राव जोधा जी के पुत्र राव दूदा जी की पौत्री तथा रत्नसिंह जी की पुत्री थीं। इनका जन्म कुड़की गाँव में वि ० सं ० १५५५ के आस-पास हुआ था। मीराबाई का श्री गिरधरलाल  के प्रति बचपन से ही सहज प्रेम था। किसी साधु से गिरधरलाल की एक सुन्दर मूर्ति इन्हें प्राप्त हुई। मीरा उस मूर्ति को सदा अपने पास रखतीं और समयानुसर उसकी स्नान,पूजा,भोजन आदि की स्वयं व्यवस्था करतीं। एक बार माता से परिहास में यह जानकर की मेरे दूल्हा ये गिरधर गोपाल हैं ~~ मीरा का मन इनकी ओर और भी अधिक झुक गया और ये गिरधर लाल को अपना सर्वस्व समझने लगीं।
             यद्यपि मीरा का जन्म अच्छे कुल में हुआ और उनका लालन-पालन भी बहुत स्नेह से हुआ तथापि बचपन से उन्हें कष्टप्रद घटनाओं को सुनना व् देखना पड़ा। मीराबाई की माता  उनकी बाल्यावस्था में परलोक सिधार गईं। पिता को लड़ाइयों से कम अवकाश मिलता था अतः इनको राव दूदा जी ने अपने पास मेड़ता बुला लिया। वहाँ उन्हें अपने पितामह के स्नेह के साथ-साथ उनके धार्मिक भाव भी प्राप्त हुए और इस प्रकार मीरा के गिरधर प्रेम का अंकुर यहाँ पल्लवित हो उठा। राव दूदा जी की मृत्यु के उप्ररान्त उनके बड़े पुत्र राव वीरमदेव जी ने इनका पालन-पोषण किया।
              सं ० १५७३ विक्रमी में मीरा का विवाह मेवाड़ के प्रसिद्ध महाराणा सांगा के ज्येष्ठ पुत्र कुँवर भोजराज के साथ हुआ। मेवाड़ में आकर इनका वैवाहिक जीवन अत्यधिक सुख से व्यतीत होने लगा। किन्तु यह सुख कुछ समय ही रहा। कुँवर भोजराज शीघ्र मीरा को विधवा बनाकर इस संसार से सदा के लिए चले गए। मीरा ने यह दुःसह वैधव्य का समय किसी प्रकार गिरधरलाल की उपासना में व्यतीत करने का निश्चय किया। कुछ वर्ष उपरान्त मीरा के पिता और श्वसुर दोनों का देहान्त हो गया। इन घटनाओं से मीरा का  मन संसार से बिल्कुल विरक्त हो गया और वे अपना अधिक से अधिक समय भगवदभजन और साधु सत्संग में व्यतीत करने लगीं। धीरे-धीरे उन्होंने लोक-लाज त्यागकर प्रेमवश भगवान के मन्दिरों में नाचना प्रारम्भ कर दिया।
             किन्तु ये बातें मेवाड़ के प्रतिष्ठित राजवंश की मर्यादा के विरुद्ध जान पड़ी अतः महाराणा सांगा के द्वितीय पुत्र रत्नसिंह और उनके छोटे भाई विक्रमजीतसिंह को इनका यह भक्ति भाव विल्कुल न रचा। विक्रमजीतसिंह ने नाना प्रकार के उचित अनुचित साधनों से मीराबाई की इहलीला समाप्त करने की पूरी चेष्टा की। इन अत्याचारों का उल्लेख स्वयं मीरा ने अपने गीतों में किया है :                
                         मीरा मगन भई हरि के गुण गाय। 
                        सांप   पिटारा  राणा  भेज्यो,मीरा हाथ दियो जाय।।
                        न्हाय धोय जब देखण लागी ,सालिगराम गई पाय। 
                        जहर का प्याला राणा भेज्या ,अमृत दीन्ह बनाय।।
                        न्हाय  धोय   जब   पीवण  लागी   हो अमर अंचाय। (मीरा की पदावली :पद  ४५ )
                 इस प्रकार के अत्याचारों से तंग आकर मीरा अपने पीहर मेड़ता चली गई। किन्तु कुछ समय बाद मेड़ता  का  राज्य मीरा के चाचा वीरमदेव के हाथ से चला गया। इस घटना से प्रोत्साहित होकर मीरा तीर्थयात्रा के लिए निकल पड़ी और वृन्दावन  होते हुए द्वारिका  गई। वहीं ये रणछोड़ भगवान  भक्ति में तल्लीन  लगीं। प्रसिद्ध है कि अन्तिम समय में मीरा को बुलाने के लिए उनके पीहर  ससुराल वालों ने ब्राह्मण भेजे किन्तु ये फिर वापस न   लौट सकीं। वि ० सं ० १६०३ में  द्वारका में ही इनका देहान्त हो गया।
    रचनाएँ :
         मीरा की जिन रचनाओं की चर्चा  विद्वानों ने की है वे निम्न प्रकार हैं :
    1. नरसी जी रो माहेरो 
    2. गीत गोविन्द  की टीका 
    3. राग गोविन्द 
    4. सोरठ के पद 
    5. मीराबाई की मलार 
    6. गर्वागीत 
    7. फुटकर पद 
    मीरा के जितने भी पद अद्यावधि प्राप्त हुए हैं ~`चाहे वह किसी भी भाषा अथवा किसी रूप में क्यों न हों उनको फुटकर पदों के रूप में संग्रहीत कर दिया गया है। (मीरा-वृहद्-पद-संग्रह :सम्पादक -पद्मावती शबनम )

    माधुर्य भक्ति :
              मीरा ने कृष्ण को अपना पति माना है। इस प्रकार अपने को कृष्ण की पत्नी मानकर उन्होंने कृष्ण की मधुर-लीलाओं का आस्वादन किया। उनमें सन्त मत के प्रभाव के कारण रहस्य की छाप पूर्ण रूप में देखी जा सकती है :
                              मैं गिरधर रंग राती ,सैयाँ मैं। 
                              पचरंग  चोला  पहर   सखी  मैं,  झिरमिट  खेलन   जाती।
                              ओह झिरमिट माँ  मिल्यो साँवरो ,खोल मिली तन गाती।
                              जिनका  पिया  परदेश  बसत  है,लिख  लिख  भेजें  पाती।
                              मेरा  पिया   मेरे   हिये   बसत   है,  ना  कहुँ  आती जाती। 
                              चंदा   जायगा  सूरज   जायगा,  जायगी  धरणि   अकासी।।
                              पवन   पाणी   दोनुं  ही   जायेंगे,  अटल   रहे   अविनासी। 
                              सुरत   निरत  का दिवला  संजोले,मनसा की करले बाती।।
                              प्रेम   हटी   का   तेल   मंगाले   जगे   रह्या दिन ते राती। 
                              सतगुरु   मिलिया   साँसा   भाग्या,  सैन   बताई    साँची।
                              ना     घर   तेरा   न    घर    मेरा,   गावे   मीरा     दासी।।(मीराबाई की पदावली :पद सं ० २० )
             अन्यथा मीरा का सारा समय प्रियतम से यही प्रार्थना करते व्यतीत होता है :
                              गोविंद कबहुँ मिले पिया मोरा। 
                              चरण कंवल कूं हंसि-हंसि देखू राखूं नेणा नेरा।।
                              निरखण कूं मोहि चाव घणेरो,कब देखूं मुख तेरा। 
                              व्याकुल प्राण धरत नहिं धीरज,मिलि तूं मीत सवेरा। 
                              मीरा के प्रभु हरि गिरधर नागर,ताप तपन बहुतेरा।। (मीराबाई की पदावली :पद १११ )

               मीरा के  प्रियतम गिरधर नागर मोर मुकुट धारी हैं उनके गले में वैजयन्ती माला फहरा रही है। पीताम्बर धारण किये वे वन-वन में गायें चराते हैं। कालिन्दी तट पर पहुँच कर शीतल कदम्ब की छाया में सुखासीन हो मधुर मुरली बजाते हैं। इस प्रकार अपनी सहज माधुरी से गोपियों को मोहित कर उनसे रास आदि क्रीड़ाएँ  करते हैं.इसी मोहन लाल की माधुरी-छवि मीरा के मन में बस गई हैऔर वे उस पर अपना तन मन वर्ण को प्रस्तुत हैं। `उस मोहन के मोहित करने वाले रूप को देखकर मीरा के नेत्रों को सतत उन्हीं को देखने की आदत बन गई है।  वह  अपनी इस स्थिति को अपनी सखी के सम्मुख इस प्रकार प्रस्तुत करती है:
                          आली री मेरे नेणाँ  बाण परी। 
                          चित्त चढ़ी मेरे माधुरी मूरत,उर बिच आन अड़ी। 
                          कब  की   ठाढ़ी  पंथ   निहारूँ ,  अपने भवन खड़ी।।
                           कैसे  प्राण  पिया  बिन  राखूं,  जीवन  मूर   जड़ी। 
                          मीरा   गिरधर  हाथ  विकानी  लोग  कहैं  बिगड़ी।।(मीराबाई की पदावली :पद ११ )
               और अपनी इस स्थिति के आधार वे दृढ़ता पूर्वक कहती हैं :
                          मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई। 
                          जाके  सिर मोर मुकुट,मेरे  पति सोई------।।(मीराबाई की पदावली :पद १५  )
               साँवरे के रंग में रंग कर वे समस्त लोक-लाज का त्याग कर देती हैं। गिरधर लाल की प्रेम की तीव्रता में उन्हें ऐसा प्रतीत होता है कि ~~    मेरी उनकी प्रीति पुराणी अतः  मीरा अपना सर्वस्व कृष्ण-चरणों में न्यौछावर कर स्वयं उनकी दासी बन जाती है।मीरा जिन प्रभु की चरणों में आत्म-समर्पण करती है वह सामान्य प्रियतम नहीं हैं ,जिनसे सहज ही भेंट हो जाय। अतः उनकी यह उक्ति " दरद की मारी मैं वन-वन डोलूं "उनकी प्रेम- स्थिति का  सुन्दर परिचय देती है.। कृष्ण- प्राप्ति के लिए वे लाख प्रयत्न करती हैं ~~ यहाँ तक कि आभूषण,वस्त्र आदि उतार कर वैरागिन का   वेश धारण कर  लेती हैं ,किन्तु प्रियतम उन्हें अपने  साक्षात्कार से कृतार्थ नहीं करते। प्रियतम की इस विमुखता से जहाँ उन्हें अत्यधिक संताप होता है वहाँ कुछ-कुछ खीझ भी उनके मन में उठती है और इसी खीझवश   वे अपनी सखी से कहती हैं :
                            देखो सहियाँ हरि मन  काठो कियो।
                            आवन कह गयो अजूं न आयो,करि करि बचन गयो। 
                            खान पान सुध बुध सब बिसरी,कैसे,करि मैं   जियो।।
                            बचन   तुम्हारे तुमहीं  बिसारे,मन  मेरो  हर   लियो। 
                            मीरा  कहे  प्रभु  गिरधर नागर,तुम बिन फटत हियो।।(मीराबाई की पदावली :पद ५६ )
         मीरा प्रियतम से मिलने के लिए नाना प्रकार के उपवास ,व्रत आदि करती हैं जिनके फलस्वरूप सूखे पत्ते की भाँति पीली पड़ जाती है ,सूखकर काँटा  जाती है किन्तु उनकी व्यथा को शान्ति किसी प्रकार नहीं मिलती। अन्ततः जब उनका ह्रदय इस पीड़ा से अत्यधिक व्यथित हो उठता है तब वह अपनी पीड़ा को कम करने के लिए उसे इस प्रकार प्रकट कर देती हैं ~~
                            सखी मेरी नींद नसानी हो। 
                             पिय  को  पंथ  निहारत,सिगरी  रैण  बिहानी   हो।। 
                            सब सखियन मिली सीख दई,मन एक न मानी हो। 
                            बिनि  देख्याँ  कल  नाहिं  पड़त,जिय ऐसी ठानी हो।। 
                            अंगि  अंगि  ब्याकुल  भई,मुख  पिय  पिय बानी हो। 
                            अन्तर  वेदन  बिरह   की, वह  पीड़ा  न  जानी   हो।। 
                            ज्यूँ  चातक   घन   को  रटे, मछरी  जिमि पानी हो। 
                            मीरा  ब्याकुल  बिरहणी, सुध   बुध   बिसरानी  हो।। (मीराबाई की पदावली :पद ८७  )
    कवियत्री ने एकाध पद में वृन्दावन का वर्णन भी किया है ~~
                            आली म्हाने लागे वृन्दावन नीको। 
                            घर-घर  तुलसी ठाकुर पूजा,दरसण  गोविंद  जी को।
                            निरमल   नीर  बहुत  जमुना में,भोजन दूध दही को। 
                           रतन सिंघासण आप बिराजे,मुकुट धरयो तुलसी को।.
                           कुंजन-कुंजन फिरत  राधिका,सबद सुणत  मुरली को। 
                           मीरा  के  प्रभु गिरधर  नागर, भजन  बिना  नर  फीको।।(मीराबाई की पदावली :पद १६३  )

          साभार स्रोत :

    • मीराबाई का जीवन और उनका काव्य : मुंशी देवी प्रसाद मुंसिफ   
    •  मीरा की पदावली  
    •   मीरा-वृहद्-पद-संग्रह :सम्पादक -पद्मावती शबनम )  
    •  ब्रजभाषा के कृष्ण- काव्य में माधुर्य भक्ति :डॉ रूपनारायण:  :हिन्दी अनुसन्धान परिषद् दिल्ली विश्वविद्यालय दिल्ली के निमित्त :नवयुग प्रकाशन दिल्ली -७          






    सोमवार, 5 जून 2017

    छीतस्वामी

    By : अशर्फी लाल मिश्र
                                                                  अशर्फी लाल मिश्र 

    जीवन परिचय :
             छीतस्वामी की वल्लभ सम्प्रदाय के भक्त कवियों में गणना की जाती है। गोस्वामी विट्ठलनाथ के शिष्य होने के पूर्व ये मथुरा के पंडा थे। उस समय उन्हें पैसे का कोई आभाव न था। अतः ये स्वभाव से उद्दंड और अक्खड़ थे किन्तु विट्ठलनाथ से दीक्षा लेने के पश्चात् इनके स्वभाव में अत्यधिक परिवर्तन आ गया और वह नम्र और सरल हो गए। डा ० दीनदयाल गुप्त ने इनका जन्म संवत १५६७ वि ० माना है। (अष्टछाप और वल्लभ सम्प्रदाय :पृष्ठ २७८ ) .दो सौ बावन वैष्णवों की वार्ता में छीतस्वामी के विषय में जो कुछ लिखा गया है उसके अनुसार ये यदा कदा पद बनाकर विट्ठलनाथ  जी को सुनाया करते थे। इन पदों से प्रसन्न  होकर एक बार विट्ठलनाथ जी ने इन पर कृपा की ,जिससे छीतस्वामी को साक्षात् कोटि कंदर्प लावण्य-मूर्ति पुरुषोत्तम के दर्शन हुए। इन दर्शनों से उनके पदों में मधुर भाव-धारा बह उठी। 

    काव्य रचना :
    *स्फुट पद (वर्षोत्सव ग्रंथों में )
    वर्ण्य विषय :कृष्ण जन बधाई ,कृष्ण की लीलाएं ,गोस्वामी जी स्तुति ,ब्रज-महिमा

    माधुर्य भक्ति :
              छीतस्वामी के आराध्य कृष्ण कृपालु तथा दयालु हैं। वे राधारमण और गोपीवल्लभ हैं। वे नाना प्रकार की लोलाओं का विधान करके भक्तों को सुखी करते हैं। इस प्रकार के उनमें अनेक गुण हाँ जिनका वर्णन करना सम्भव नहीं है :
                          मेरी अखियन के भूषन गिरधारी। 
                          बलि बलि जाऊँ छबीली छवि पर अति आनन्द सुखकारी।।
                          परम उदार चतुर चिन्तामणि दरस परस दुख हारी। 
                          अतुल प्रताप तनक तुलसी दल मानत सेवा भारी।।
                          छीत स्वामी गिरिधरन विशद यश गावत गोकुल नारी। 
                          कहा बरनौं गुनगाथ नाथ के श्री विट्ठल ह्रदय विचारी।। (छीतस्वामी का पद संग्रह )
           कृष्ण-रूप माधुरी तथा गुण माधुरी  से मुग्ध  होकर गोपियों ने श्रीकृष्ण के  सौन्दर्य   का परिचय निम्न  शब्दों में :
                          अरी हौं स्याम रूप लुभानी। 
                          मारग जात मिले ननदनन्दन तन की दशा भुलानी।।
                          मोर  मुकुट   सीस  पर  बाको  बांकी   चितवन  सोहे। 
                          अंग    अंग    भूषन   बने   सजनी   देखे   सो    मोहे।।
                          मोतन   मुरि  के   जब  मुसकाने   तब हौं छाकि रही। 
                          छीतस्वामी गिरधर की  चितवन जाति न कछु कही।। 
              छीतस्वामी ने कृष्ण की मधुर लीलाओं में संयोग की लीलाओं का विशेष रूप से वर्णन किया है। इनमें सुरत और सुरतान्त छवि के पद अधिक हैं और इनका वर्णन सुन्दर  तथा सरस है :
                           सुभग स्याम के अंग राधा विराजे। 
                           नैन आलस भरी सकल निसि सुखकरी कंठहारि भुज धरी स्याम लाजे।।
                           मनक  कंचन  तनी  पीक   दृग  सो  सनी  अति ही रस में बनी रूप भ्राजे। 
                           छीतस्वामी   गिरिधरन  के मन बसी मन ही मन हँसी सुख दियौ आजे।।
             भावोद्दीपन के लिए छीतस्वामी ने वसन्त और पावस ऋतू का सुन्दर वर्णन किया है। वसन्त के इस वर्णन में एक और ऋतु  के समागम से वृन्दावन में जो सुषमा छा गई है ,उसका चित्रण किया गया है :
                          आयो ऋतू राज साज पंचमी बसंत आज ,
                                     बौरे द्रुम  अति अनूप रहे फूली। 
                          बेली पट पीत माल ,सेत पीत कुसुम लाल ,
                                      उढवति,सब स्याम भाम भँवर रहे झूली।।
                         रजनी अति भई स्वच्छ ,सरिता सब विमल पच्छ,
                                       उडगन पति अति अकास बरखत रस मूली। 
                          जती सती सिद्ध साध जित तित तें उठे भाग ,
                                        बिमन सभी तपसी मुनि मन गति भूली।।
                          जुवति जूथ करति केलि ,स्याम सुखद सिंधु झेलि,
                                        लाज लीक दई पेलि ,परसि पगन तूली। 
                           बाजत पखावज उपंग बाँसुरी ,मृदंग, चंग,
                                        यह सब सुख 'छीत' निरखि इच्छा अनुकूली।।
              रास में प्रवेश पा कृष्ण  के साथ विलास करना छीतस्वामी के जीवन का लक्ष्य है। यह विलास सदा ब्रजभूमि में होता ही रहता है। अतः छीतस्वामी विधाता से जन्म-जन्म में ब्रज-निवास की याचना करते हैं। निम्न कवित्त से उनके उपासक का स्वरुप विल्कुल स्पष्ट हो जाता है:
                              अहो विधना ! तो पै अंचरा पसारि मांगों,
                                                 जनम जनम दीजो मोहि ब्रज बसिबो। 
                              अहीर की जाति समीप नन्द घर हेरि,
                                                  हेरि स्याम सुभग घरी घरी हँसिबो।।
                             दधि के दान मिस ब्रज की बीथिन,
                                                   झकझोरन   अंग  अंग को  परसिबो। 
                             छीत स्वामी गिरिधर श्री विट्ठल,
                                                   सरद   रैन   रस    रास   बिलसिबो।।
    साभार स्रोत:

    • अष्टछाप और वल्लभ सम्प्रदाय:डॉ दीनदयाल गुप्त  
    •  सौ बावन वैष्णवों की वार्ता
    • ब्रजभाषा के कृष्ण- काव्य में माधुर्य भक्ति :डॉ रूपनारायण: :हिन्दी अनुसन्धान परिषद् दिल्ली विश्वविद्यालय दिल्ली के निमित्त :नवयुग प्रकाशन दिल्ली -७ 


    विप्र सुदामा (खण्डकाव्य ) - अशर्फी लाल मिश्र

     --  लेखक -अशर्फी लाल मिश्र अकबरपुर कानपुर। Asharf Lal Mishra(1943-----) 1- विप्र सुदामा -1  [1] 2- विप्र सुदामा - 2  [1] 3- विप्र सुदामा - ...