By : अशर्फी लाल मिश्र
परिचय : बृजभाषा के प्रसिद्ध मुसलमान कवि रसखान के जन्म-संवत ,जन्म-स्थान आदि के विषय में तथ्यों के अभाव में निश्चित रूप से कुछ कह सकना सम्भव नहीं है। अनुमान किया गया है कि सोलहवीं शताब्दी ईसवी के मध्य भाग में उनका जन्म हुआ होगा। (हिंदी साहित्य :डा० हजारी प्रसाद द्विवेदी :पृष्ठ २०७ ) रसखान ने अपनी कृति प्रेमवाटिका के रचना काल का उल्लेख निम्न दोहे में किया है :
विधु सागर रस इंदु सुभ बरस सरस रसखानि।
प्रेमवाटिका रचि रुचिर चिर-हिय-हरष बखानि।।
(प्रेमवाटिका :दोहा ५१ )
सम्भवतः इसी दोहे के आधार पर डा० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने प्रेमवाटिका का रचना-काल वि० सं० १६७१ अर्थात ईसवी सन १६१४ स्वीकार किया है (हिंदी साहित्य :पृष्ठ २०६ )उक्त मान्यता में दोहे के सागर शब्द का अर्थ सात लिया गया है। किन्तु सामान्यतः छन्दशास्त्रों में सागर का अर्थ चार का सूचक है और तदनुसार प्रेमवाटिका का समय वि०सं० १६४१ सिद्ध होता है। रसखान और गो० विट्ठलनाथ की भेंट को सम्मुख रखते हुए यह संवत अधिक संगत प्रतीत होता है। 'दो सौ बावन वैष्णवों की वार्ता 'में रसखान की भी वार्ता सम्मिलित है। इस वार्ता के अनुसार ये गोस्वामी विट्ठलनाथ के बड़े कृपापात्र शिष्य थे। गोस्वामी विट्ठलनाथ का परलोकगमन १६४२ विक्रमी संवत में हुआ था। अतः यह निश्चित है कि इस समय तक रसखान गोस्वामी जी का शिष्यत्व स्वीकार कर चुके होंगे। इसी आधार पर आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इनका कविता काल वि ० सं ० १६४० के उपरांत स्वीकार किया है। (हिन्दी साहित्य का इतिहास :पृष्ठ १९२ )
रसखान अथवा रसखानि कवि का उपनाम है। इनका वास्तविक नाम क्या था आज तक निश्चित नहीं है। शिवसिंह सरोज में इन्हें सैयद इब्राहीम पिहानी वाले लिखा गया है। किन्तु दो सौ बावन वैष्णवों की वार्ता में रसखान दिल्ली के पठान कहे गए हैं। स्वयं रसखान ने भी इसी बात का संकेत निम्न पंक्तियों में किया है।
देखि ग़दर हित साहिबी दिल्ली नगर मसान।
छिनक बाढ़सा-बंस की ठसक छोरि रसखान।।
प्रेम निकेतन श्री बनहि आय गोवर्धन-धाम।
लह्यो सरन चित चाहिकै जुगल सरूप ललाम।।
इस कारण डा० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने 'रसखान 'नाम के दो कवियों का उल्लेख किया है।
Asharfi Lal Mishra |
रसखान |
परिचय : बृजभाषा के प्रसिद्ध मुसलमान कवि रसखान के जन्म-संवत ,जन्म-स्थान आदि के विषय में तथ्यों के अभाव में निश्चित रूप से कुछ कह सकना सम्भव नहीं है। अनुमान किया गया है कि सोलहवीं शताब्दी ईसवी के मध्य भाग में उनका जन्म हुआ होगा। (हिंदी साहित्य :डा० हजारी प्रसाद द्विवेदी :पृष्ठ २०७ ) रसखान ने अपनी कृति प्रेमवाटिका के रचना काल का उल्लेख निम्न दोहे में किया है :
विधु सागर रस इंदु सुभ बरस सरस रसखानि।
प्रेमवाटिका रचि रुचिर चिर-हिय-हरष बखानि।।
(प्रेमवाटिका :दोहा ५१ )
सम्भवतः इसी दोहे के आधार पर डा० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने प्रेमवाटिका का रचना-काल वि० सं० १६७१ अर्थात ईसवी सन १६१४ स्वीकार किया है (हिंदी साहित्य :पृष्ठ २०६ )उक्त मान्यता में दोहे के सागर शब्द का अर्थ सात लिया गया है। किन्तु सामान्यतः छन्दशास्त्रों में सागर का अर्थ चार का सूचक है और तदनुसार प्रेमवाटिका का समय वि०सं० १६४१ सिद्ध होता है। रसखान और गो० विट्ठलनाथ की भेंट को सम्मुख रखते हुए यह संवत अधिक संगत प्रतीत होता है। 'दो सौ बावन वैष्णवों की वार्ता 'में रसखान की भी वार्ता सम्मिलित है। इस वार्ता के अनुसार ये गोस्वामी विट्ठलनाथ के बड़े कृपापात्र शिष्य थे। गोस्वामी विट्ठलनाथ का परलोकगमन १६४२ विक्रमी संवत में हुआ था। अतः यह निश्चित है कि इस समय तक रसखान गोस्वामी जी का शिष्यत्व स्वीकार कर चुके होंगे। इसी आधार पर आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इनका कविता काल वि ० सं ० १६४० के उपरांत स्वीकार किया है। (हिन्दी साहित्य का इतिहास :पृष्ठ १९२ )
रसखान अथवा रसखानि कवि का उपनाम है। इनका वास्तविक नाम क्या था आज तक निश्चित नहीं है। शिवसिंह सरोज में इन्हें सैयद इब्राहीम पिहानी वाले लिखा गया है। किन्तु दो सौ बावन वैष्णवों की वार्ता में रसखान दिल्ली के पठान कहे गए हैं। स्वयं रसखान ने भी इसी बात का संकेत निम्न पंक्तियों में किया है।
देखि ग़दर हित साहिबी दिल्ली नगर मसान।
छिनक बाढ़सा-बंस की ठसक छोरि रसखान।।
प्रेम निकेतन श्री बनहि आय गोवर्धन-धाम।
लह्यो सरन चित चाहिकै जुगल सरूप ललाम।।
इस कारण डा० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने 'रसखान 'नाम के दो कवियों का उल्लेख किया है।
- सैयद इब्राहीम पिहानी वाले
- गोसाईं विट्ठलनाथ जी के कृपापात्र शिष्य सुजान रसखान
(हिन्दी साहित्य :पृष्ठ २०६ )
दूसरी ओर विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने अनुमान के आधार पर 'पिहानी वाले ' और दिल्ली के पठान रसखान की एकता बताते हुए लिखा है :
यदि पिहानी से इनका सम्बन्ध रहा हो तो यही अनुमान करना पड़ेगा कि हुमायूँ की अनुकूलता और अकबर के अनुग्रह से सैयदों को दिल्ली में भी कुछ आश्रय स्थान अवश्य मिला होगा। संभव है ये पिहानी से दिल्ली चले गए हों और वहीं रहने लगे हों। (रसखानि ग्रन्थावली :पृष्ठ २५ ) इस प्रकार रसखान के जन्म-स्थान के विषय में केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है। किन्तु रसखान की ऊपर उद्धृत पंक्तियों से यह सर्वथा स्पष्ट है कि इनका सम्बन्ध शाही खानदान से था और यह उस समय जब सिंहासन के लिए ग़दर होने के कारण दिल्ली श्मशानवत हो रही थी तब दिल्ली और बादशाह बंश की ठसक छोड़कर वृन्दावन में आगये और यहीं कृष्ण-माधुरी का पान एवं गान करते हुए निवास करने लगे। इस ग़दर का काल भी इतिहास के आधार पर अकबर के राज्य-काल में संवत १६४० विक्रमी के आसपास स्वीकार किया जा सकता है। (रसखानि ग्रंथावली :पृष्ठ २७ )
दिल्ली छोड़कर प्रेम-धाम आने उक्त राजनैतिक कारण के अतिरिक्त अन्य कुछ कारणों का उल्लेख ' दो सौ चौरासी वैष्णवों की वार्ता 'एवं किम्बदन्तियों में मिलता है। इनके अनुसार पहले रसखान किसी साहूकार के पुत्र अथवा स्त्री के रूप पर इतने मुग्ध थे कि एक क्षण के लिए भी उसे देखे बिना न रह सकते थे। श्रीकृष्ण की रूप-छवि देखकर इनके प्रेम का विषय और ही हो गया। रसखान के निम्न दोहे से भी यही सूचित होता है।
तोरि मानिनी ते हियो फोरि मोहिनी मान।
प्रेमदेव की छबिहिं लखि भए मियां रसखान।।
रचनाएँ :
*सुजान रसखान
*प्रेम वाटिका
*दानलीला
माधुर्य भक्ति :
रसखान का साध्य भी सूरदास ,हितहरिवंश आदि कृष्ण-भक्त कवियों की भांति प्रेम की प्राप्ति रहा है। रसखान ने प्रेम-वाटिका में अपने इस साध्य तत्व को स्पष्ट करते हुए कहा है :
ज्ञान ध्यान विद्या मती,मत बिस्वास बिवेक।
विना प्रेम सब धूरि है, अगजग एक अनेक।।
प्रेम फांस में फँसि मरे, सोई जिये सदाहिं।
प्रेम-मरम जाने बिना,मरि कोउ जीवत नाहिं।। (प्रेम-वाटिका :दोहा २५-२६ )
तथा ---
जेहि पाएं वैकुंठ अरु, हरिहूँ की नहिं चाहि।
सोइ अलौकिक सुद्ध सुभ,सरस सुप्रेम कहाहि।।(प्रेम-वाटिका :दोहा २८ )
वास्तव में रसखान की दृष्टि में प्रेम और हरि अभेद्य हैं। क्योंकि प्रेम हरि का रूप है और स्वयं हरि प्रेम-स्वरुप हैं अतः हरि और प्रेम में उसी प्रकार की अभिन्नता है जिस प्रकार की सूर्य और धुप में है।
प्रेम हरी को रूप है ,त्यों हरि प्रेम-सरूप।
एक होइ द्वै यों लसे,ज्यों सूरज अरु धूप।। (प्रेम-वाटिका :दोहा २४ )
रसखान के विचार में आनन्द की प्राप्ति केवल प्रेम के द्वारा सम्भव है। वह उन सभी पदार्थों से विलक्षण है जिनसे प्राणी-मात्र परिचय होता है :
दंपति सुख अरु विषय रस,पूजा ,निष्ठा,ध्यान।
इनते परे बखानिए, शुद्ध प्रेम रसखान।।(प्रेम-वाटिका :दोहा १९ )
इसी कारण रसखान ने प्रेम के विषय में कहा है --
प्रेम अगम अनुपम अमित ,सागर सरिस बखान।
जो आवत एहि ढिग बहुरि जात नाहिं रसखान।।
कमल तंतु सो छीन अरु, कठिन खड्ग की धार।
अति सूधो टेढ़ो बहुरि, प्रेमपंथ अनिवार।। (प्रेम-वाटिका :दोहा ३ और ६ )
इस प्रकार का अगम प्रेम रूप,गुण,धन और यौवन आकर्षण से रहित, स्वार्थ से मुक्त सर्वथा शुद्ध होता है और इसीलिए इसे सकल-रस खानि कहा गया है। एक दोहे में प्रेम का स्वरुप प्रकार प्रस्तुत गया है :
रसमय, स्वाभाविक,बिना स्वारथ अचल महान।
सदा एक रस शुद्ध सोइ प्रेम अहे रसखान।।(प्रेम-वाटिका :दोहा ४२ )
इस शुद्ध प्रेम के बिना ज्ञान,कर्म और उपासना केवल अहंता को बढ़ाने वाला है अर्थात साधनों साध्य प्रेम नहीं है तो यह केवल दुखप्रद है और प्रेम की जिसे प्राप्ति हो गई उसके लिए कुछ जानना शेष नहीं रह जाता।
जेहि बिनु जाने कछुहि नहिं,जान्यों जात बिसेस।
सोई प्रेम, जेहि जानिके,रहि न जात कछु सेस।। (प्रेम-वाटिका :दोहा १८ )
वेद मर्यादाएँ तथा जागतिक नियम इस प्रेम की प्राप्ति में विघ्न-रूप सिद्ध होते हैं। अतः जब तक साधक इन नियमों को दृढ़ता से पकड़े रहता है तब तक उसे प्रेम की प्राप्ति नहीं होती और दूसरी ओर यदि साधक के ह्रदय में प्रेम का प्रकाश हो जाता है उस समय ये सभी नियम बंधन स्वतः छूट जाते हैं:
लोक-वेद-मरजाद सब लाज काज संदेह।
देत बहाए प्रेम करि,विधि निषेध को नेह।। (प्रेम-वाटिका :दोहा ७ )
रसखान ने प्रेम-रस देने वाले के रूप में राधा-कृष्ण स्मरण किया है। उनके अनुसार यही युगल-रूप वह माली है जिनके कारण प्रेमवाटिका सदा हरी भरी रहती है :
प्रेम-अयनि श्री राधिका,प्रेम बरन नन्दनन्द।
प्रेम बाटिका के दोऊ,माली मलिन द्वन्द।।(प्रेम-वाटिका :दोहा १ )
यद्यपि उक्त दोहे में रसखान ने राधा और कृष्ण दोनों को प्रेम का विकास करने वाले के रूप में स्वीकार किया है ,तथापि सामान्य रूप से उन्होंने कृष्ण को ही अपना इष्ट है। सुजान रसखान के अनेक सवैयों तथा कवित्तों से इसी बात की पुष्टि होती है। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा है :
बांसुरीवारो बड़ो रिझवार है,स्याम जु नैसुक ढार ढरैगो।
लाड़लो छैल वही तो अहीर को पीर हमारे हिये की हरैगो।।
(सुजान रसखानि :सं० विश्वनाथ मिश्र :सवैया ७ )
प्रेम-लीलाओं वर्णन में भी कवि ने राधा को गोपियों से विशिष्ट स्थान नहीं दिया है। हास-परिहास छेड़-छाड़ ,रास आदि के वर्णन में गोपी सामान्य का वर्णन उपलब्ध होता है। किन्तु कुछ सवैये ऐसे हैं जिनमें राधा को कृष्ण की दुलही के रूप में स्वीकार कर उनको स्वकीया माना गया है। इन्हीं सवैयों के आधार पर राधा की अन्य गोपियों से महत्ता सिद्ध है :
मोर के चंदन मोर बन्यौ दिन दूलह है अली नंद को नंदन।
श्री बृषभानुसुता दुलही दिन जोरी बनी बिधना सुखकंदन।।
आवै कह्यौ न कछु रसखानि री दोऊ फंदे छवि प्रेम के फंदन।
जाहि बिलोकें सबै सुख पावत ये ब्रज जीवन हैं दुखदंदन।।
(सुजान रसखानि :सं० विश्वनाथ मिश्र :सवैया १९० )
नन्दनन्दन कृष्ण की अपूर्व छवि देखकर गोपियाँ कृष्ण को अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देती हैं। कृष्ण के बिना उन्हें अब चैन नहीं पड़ता। रात-दिन वही सांवली सलोनी मूरत उनकी आँखों के सम्मुख खड़ी रहती है। कृष्ण की रूप-छवि के साथ-साथ गोपी की व्याकुलता का वर्णन कवि द्वारा निम्न शव्दों में :
सोहत है चंदवा सिर मोर के जैसिये सुंदर पाग कसी है।
तैसिये गोरज भाल बिराजति जैसी हिये बनमाल लसी है।
रसखानि बिलोकत बौरी भई दृग मूँद के ग्वालि पुकारि हँसी है।
खोलारि घूंघट खोलों कहा वह मूरति नैनन माँझ बसी है।।
(सुजान रसखानि :सं० विश्वनाथ मिश्र :सवैया १७९ )
कृष्ण के प्रति इस अनुराग को गोपियाँ स्वयं स्वीकार करती हैं ~
जा दिन ते निरख्यो नंदनंदन कानि तजी घरबंधन छूट्यो।
चारु विलोकनि कीनी सुमार सम्हार गई मन मार ने लूट्यो।
सागर को सरिता जिमि धावै न रोकी रहे कुल को पुल टूट्यो।
मत्त भयो मन संग फिरै रसखानि सरूप सुधारस लूट्यो।।
(सुजान रसखानि :सं० विश्वनाथ मिश्र :सवैया १७८ )
गोपियाँ केवल रूप से प्रभावित हुई हों ऐसी बात नहीं है। वृन्दावन कानन में बजने वाली कृष्ण की बाँसुरिया भी उन्हें मोहित कर लेती है ,उनके मन को मथ डालती है और इस प्रकार उन्हें अधीर बना देती है। कृष्ण बाँसुरी में मधुर-तान आलापने के साथ-साथ गोपियों का नाम ले लेकर उन्हें बुलाते हैं और इस प्रकार उनके मन का धैर्य तो डिग ही जाता है किन्तु गाँव-गाँव में उनके अनुराग की चर्चा चल पड़ती है। ऐसी स्थिति में गोपियों का यह कहना अत्यधिक स्वाभाविक है :
कान्ह भए बस बाँसुरि के अब कौन सखी हमको चहि है ।
निस द्यौस रहे संग साथ लगी यह सौतनि तापन क्यों सहि है।
जिन मोहि लियो मन मोहन को रसखानि सदा हमको दहि है।
मिल आओ सबै सखी भाग चलैं अब तो ब्रज में बंसुरी रहि है।।
(सुजान रसखानि :सं० विश्वनाथ मिश्र :सवैया ६४ )
साभार स्रोत:
ज्ञान ध्यान विद्या मती,मत बिस्वास बिवेक।
विना प्रेम सब धूरि है, अगजग एक अनेक।।
प्रेम फांस में फँसि मरे, सोई जिये सदाहिं।
प्रेम-मरम जाने बिना,मरि कोउ जीवत नाहिं।। (प्रेम-वाटिका :दोहा २५-२६ )
तथा ---
जेहि पाएं वैकुंठ अरु, हरिहूँ की नहिं चाहि।
सोइ अलौकिक सुद्ध सुभ,सरस सुप्रेम कहाहि।।(प्रेम-वाटिका :दोहा २८ )
वास्तव में रसखान की दृष्टि में प्रेम और हरि अभेद्य हैं। क्योंकि प्रेम हरि का रूप है और स्वयं हरि प्रेम-स्वरुप हैं अतः हरि और प्रेम में उसी प्रकार की अभिन्नता है जिस प्रकार की सूर्य और धुप में है।
प्रेम हरी को रूप है ,त्यों हरि प्रेम-सरूप।
एक होइ द्वै यों लसे,ज्यों सूरज अरु धूप।। (प्रेम-वाटिका :दोहा २४ )
रसखान के विचार में आनन्द की प्राप्ति केवल प्रेम के द्वारा सम्भव है। वह उन सभी पदार्थों से विलक्षण है जिनसे प्राणी-मात्र परिचय होता है :
दंपति सुख अरु विषय रस,पूजा ,निष्ठा,ध्यान।
इनते परे बखानिए, शुद्ध प्रेम रसखान।।(प्रेम-वाटिका :दोहा १९ )
इसी कारण रसखान ने प्रेम के विषय में कहा है --
प्रेम अगम अनुपम अमित ,सागर सरिस बखान।
जो आवत एहि ढिग बहुरि जात नाहिं रसखान।।
कमल तंतु सो छीन अरु, कठिन खड्ग की धार।
अति सूधो टेढ़ो बहुरि, प्रेमपंथ अनिवार।। (प्रेम-वाटिका :दोहा ३ और ६ )
इस प्रकार का अगम प्रेम रूप,गुण,धन और यौवन आकर्षण से रहित, स्वार्थ से मुक्त सर्वथा शुद्ध होता है और इसीलिए इसे सकल-रस खानि कहा गया है। एक दोहे में प्रेम का स्वरुप प्रकार प्रस्तुत गया है :
रसमय, स्वाभाविक,बिना स्वारथ अचल महान।
सदा एक रस शुद्ध सोइ प्रेम अहे रसखान।।(प्रेम-वाटिका :दोहा ४२ )
इस शुद्ध प्रेम के बिना ज्ञान,कर्म और उपासना केवल अहंता को बढ़ाने वाला है अर्थात साधनों साध्य प्रेम नहीं है तो यह केवल दुखप्रद है और प्रेम की जिसे प्राप्ति हो गई उसके लिए कुछ जानना शेष नहीं रह जाता।
जेहि बिनु जाने कछुहि नहिं,जान्यों जात बिसेस।
सोई प्रेम, जेहि जानिके,रहि न जात कछु सेस।। (प्रेम-वाटिका :दोहा १८ )
वेद मर्यादाएँ तथा जागतिक नियम इस प्रेम की प्राप्ति में विघ्न-रूप सिद्ध होते हैं। अतः जब तक साधक इन नियमों को दृढ़ता से पकड़े रहता है तब तक उसे प्रेम की प्राप्ति नहीं होती और दूसरी ओर यदि साधक के ह्रदय में प्रेम का प्रकाश हो जाता है उस समय ये सभी नियम बंधन स्वतः छूट जाते हैं:
लोक-वेद-मरजाद सब लाज काज संदेह।
देत बहाए प्रेम करि,विधि निषेध को नेह।। (प्रेम-वाटिका :दोहा ७ )
रसखान ने प्रेम-रस देने वाले के रूप में राधा-कृष्ण स्मरण किया है। उनके अनुसार यही युगल-रूप वह माली है जिनके कारण प्रेमवाटिका सदा हरी भरी रहती है :
प्रेम-अयनि श्री राधिका,प्रेम बरन नन्दनन्द।
प्रेम बाटिका के दोऊ,माली मलिन द्वन्द।।(प्रेम-वाटिका :दोहा १ )
यद्यपि उक्त दोहे में रसखान ने राधा और कृष्ण दोनों को प्रेम का विकास करने वाले के रूप में स्वीकार किया है ,तथापि सामान्य रूप से उन्होंने कृष्ण को ही अपना इष्ट है। सुजान रसखान के अनेक सवैयों तथा कवित्तों से इसी बात की पुष्टि होती है। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा है :
बांसुरीवारो बड़ो रिझवार है,स्याम जु नैसुक ढार ढरैगो।
लाड़लो छैल वही तो अहीर को पीर हमारे हिये की हरैगो।।
(सुजान रसखानि :सं० विश्वनाथ मिश्र :सवैया ७ )
प्रेम-लीलाओं वर्णन में भी कवि ने राधा को गोपियों से विशिष्ट स्थान नहीं दिया है। हास-परिहास छेड़-छाड़ ,रास आदि के वर्णन में गोपी सामान्य का वर्णन उपलब्ध होता है। किन्तु कुछ सवैये ऐसे हैं जिनमें राधा को कृष्ण की दुलही के रूप में स्वीकार कर उनको स्वकीया माना गया है। इन्हीं सवैयों के आधार पर राधा की अन्य गोपियों से महत्ता सिद्ध है :
मोर के चंदन मोर बन्यौ दिन दूलह है अली नंद को नंदन।
श्री बृषभानुसुता दुलही दिन जोरी बनी बिधना सुखकंदन।।
आवै कह्यौ न कछु रसखानि री दोऊ फंदे छवि प्रेम के फंदन।
जाहि बिलोकें सबै सुख पावत ये ब्रज जीवन हैं दुखदंदन।।
(सुजान रसखानि :सं० विश्वनाथ मिश्र :सवैया १९० )
नन्दनन्दन कृष्ण की अपूर्व छवि देखकर गोपियाँ कृष्ण को अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देती हैं। कृष्ण के बिना उन्हें अब चैन नहीं पड़ता। रात-दिन वही सांवली सलोनी मूरत उनकी आँखों के सम्मुख खड़ी रहती है। कृष्ण की रूप-छवि के साथ-साथ गोपी की व्याकुलता का वर्णन कवि द्वारा निम्न शव्दों में :
सोहत है चंदवा सिर मोर के जैसिये सुंदर पाग कसी है।
तैसिये गोरज भाल बिराजति जैसी हिये बनमाल लसी है।
रसखानि बिलोकत बौरी भई दृग मूँद के ग्वालि पुकारि हँसी है।
खोलारि घूंघट खोलों कहा वह मूरति नैनन माँझ बसी है।।
(सुजान रसखानि :सं० विश्वनाथ मिश्र :सवैया १७९ )
कृष्ण के प्रति इस अनुराग को गोपियाँ स्वयं स्वीकार करती हैं ~
जा दिन ते निरख्यो नंदनंदन कानि तजी घरबंधन छूट्यो।
चारु विलोकनि कीनी सुमार सम्हार गई मन मार ने लूट्यो।
सागर को सरिता जिमि धावै न रोकी रहे कुल को पुल टूट्यो।
मत्त भयो मन संग फिरै रसखानि सरूप सुधारस लूट्यो।।
(सुजान रसखानि :सं० विश्वनाथ मिश्र :सवैया १७८ )
गोपियाँ केवल रूप से प्रभावित हुई हों ऐसी बात नहीं है। वृन्दावन कानन में बजने वाली कृष्ण की बाँसुरिया भी उन्हें मोहित कर लेती है ,उनके मन को मथ डालती है और इस प्रकार उन्हें अधीर बना देती है। कृष्ण बाँसुरी में मधुर-तान आलापने के साथ-साथ गोपियों का नाम ले लेकर उन्हें बुलाते हैं और इस प्रकार उनके मन का धैर्य तो डिग ही जाता है किन्तु गाँव-गाँव में उनके अनुराग की चर्चा चल पड़ती है। ऐसी स्थिति में गोपियों का यह कहना अत्यधिक स्वाभाविक है :
कान्ह भए बस बाँसुरि के अब कौन सखी हमको चहि है ।
निस द्यौस रहे संग साथ लगी यह सौतनि तापन क्यों सहि है।
जिन मोहि लियो मन मोहन को रसखानि सदा हमको दहि है।
मिल आओ सबै सखी भाग चलैं अब तो ब्रज में बंसुरी रहि है।।
(सुजान रसखानि :सं० विश्वनाथ मिश्र :सवैया ६४ )
साभार स्रोत:
- हिंदी साहित्य :डा० हजारी प्रसाद द्विवेदी
- दो सौ बावन वैष्णवों की वार्ता
- ब्रजभाषा के कृष्ण- काव्य में माधुर्य भक्ति :डॉ रूपनारायण:हिन्दी अनुसन्धान परिषद् दिल्ली विश्वविद्यालय दिल्ली के निमित्त :नवयुग प्रकाशन दिल्ली -७
- हिन्दी साहित्य का इतिहास:आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
- रसखानि ग्रन्थावली
- सुजान रसखानि :सं० विश्वनाथ मिश्र
- प्रेमवाटिका