By : अशर्फी लाल मिश्र
अशर्फी लाल मिश्र |
मीराबाई |
प्रसिद्ध कवियत्री मीरा जिनके पदों का गायन उनकी भक्ति भावना तथा गेयता एवं मधुरता के कारण भारत के प्रायः सभी भागों में होता है,राजस्थान की रहने वाली थीं। मीरा से साधारण जनता तथा विद्वानों का परिचय उनके गीतों के कारण था। ये गीत भी लिखित रूप में न होने के कारण अपने आकार-प्रकार में भाषा और भाव की दृष्टि से बदलते चले गए। इसी का यह परिणाम हुआ कि आज एक भाव के पद विभिन्न भाषाओँ में विभिन्न रूपों में उपलब्ध होते हैं किन्तु इन पदों द्वारा प्राप्त प्रसिद्धि के कारण साहित्यिक तथा ऐतिहासिक विद्वानों की जिज्ञासा मीरा के सम्बन्ध में आवश्यक परिचय प्राप्त करने की हुई। ऐतिहासिक दृष्टि से कर्नल टॉड तथा स्ट्रैटन ने इनके जीवन पर प्रकाश डालने की चेष्टा की और मुंशी देवी प्रसाद मुंसिफ ने मीराबाई का जीवन और उनका काव्य यह पुस्तक लिखकर सर्व प्रथम साहित्यिक दृष्टि से उनके सम्बन्ध में विद्वानों को परिचित कराया।
जीवन वृत्त :
मीराबाई जोधपुर के संस्थापक सुप्रसिद्ध ,राठौड़ राजा राव जोधा जी के पुत्र राव दूदा जी की पौत्री तथा रत्नसिंह जी की पुत्री थीं। इनका जन्म कुड़की गाँव में वि ० सं ० १५५५ के आस-पास हुआ था। मीराबाई का श्री गिरधरलाल के प्रति बचपन से ही सहज प्रेम था। किसी साधु से गिरधरलाल की एक सुन्दर मूर्ति इन्हें प्राप्त हुई। मीरा उस मूर्ति को सदा अपने पास रखतीं और समयानुसर उसकी स्नान,पूजा,भोजन आदि की स्वयं व्यवस्था करतीं। एक बार माता से परिहास में यह जानकर की मेरे दूल्हा ये गिरधर गोपाल हैं ~~ मीरा का मन इनकी ओर और भी अधिक झुक गया और ये गिरधर लाल को अपना सर्वस्व समझने लगीं।
यद्यपि मीरा का जन्म अच्छे कुल में हुआ और उनका लालन-पालन भी बहुत स्नेह से हुआ तथापि बचपन से उन्हें कष्टप्रद घटनाओं को सुनना व् देखना पड़ा। मीराबाई की माता उनकी बाल्यावस्था में परलोक सिधार गईं। पिता को लड़ाइयों से कम अवकाश मिलता था अतः इनको राव दूदा जी ने अपने पास मेड़ता बुला लिया। वहाँ उन्हें अपने पितामह के स्नेह के साथ-साथ उनके धार्मिक भाव भी प्राप्त हुए और इस प्रकार मीरा के गिरधर प्रेम का अंकुर यहाँ पल्लवित हो उठा। राव दूदा जी की मृत्यु के उप्ररान्त उनके बड़े पुत्र राव वीरमदेव जी ने इनका पालन-पोषण किया।
सं ० १५७३ विक्रमी में मीरा का विवाह मेवाड़ के प्रसिद्ध महाराणा सांगा के ज्येष्ठ पुत्र कुँवर भोजराज के साथ हुआ। मेवाड़ में आकर इनका वैवाहिक जीवन अत्यधिक सुख से व्यतीत होने लगा। किन्तु यह सुख कुछ समय ही रहा। कुँवर भोजराज शीघ्र मीरा को विधवा बनाकर इस संसार से सदा के लिए चले गए। मीरा ने यह दुःसह वैधव्य का समय किसी प्रकार गिरधरलाल की उपासना में व्यतीत करने का निश्चय किया। कुछ वर्ष उपरान्त मीरा के पिता और श्वसुर दोनों का देहान्त हो गया। इन घटनाओं से मीरा का मन संसार से बिल्कुल विरक्त हो गया और वे अपना अधिक से अधिक समय भगवदभजन और साधु सत्संग में व्यतीत करने लगीं। धीरे-धीरे उन्होंने लोक-लाज त्यागकर प्रेमवश भगवान के मन्दिरों में नाचना प्रारम्भ कर दिया।
किन्तु ये बातें मेवाड़ के प्रतिष्ठित राजवंश की मर्यादा के विरुद्ध जान पड़ी अतः महाराणा सांगा के द्वितीय पुत्र रत्नसिंह और उनके छोटे भाई विक्रमजीतसिंह को इनका यह भक्ति भाव विल्कुल न रचा। विक्रमजीतसिंह ने नाना प्रकार के उचित अनुचित साधनों से मीराबाई की इहलीला समाप्त करने की पूरी चेष्टा की। इन अत्याचारों का उल्लेख स्वयं मीरा ने अपने गीतों में किया है :
मीरा मगन भई हरि के गुण गाय।
सांप पिटारा राणा भेज्यो,मीरा हाथ दियो जाय।।
न्हाय धोय जब देखण लागी ,सालिगराम गई पाय।
जहर का प्याला राणा भेज्या ,अमृत दीन्ह बनाय।।
न्हाय धोय जब पीवण लागी हो अमर अंचाय। (मीरा की पदावली :पद ४५ )
इस प्रकार के अत्याचारों से तंग आकर मीरा अपने पीहर मेड़ता चली गई। किन्तु कुछ समय बाद मेड़ता का राज्य मीरा के चाचा वीरमदेव के हाथ से चला गया। इस घटना से प्रोत्साहित होकर मीरा तीर्थयात्रा के लिए निकल पड़ी और वृन्दावन होते हुए द्वारिका गई। वहीं ये रणछोड़ भगवान भक्ति में तल्लीन लगीं। प्रसिद्ध है कि अन्तिम समय में मीरा को बुलाने के लिए उनके पीहर ससुराल वालों ने ब्राह्मण भेजे किन्तु ये फिर वापस न लौट सकीं। वि ० सं ० १६०३ में द्वारका में ही इनका देहान्त हो गया।
रचनाएँ :
मीरा की जिन रचनाओं की चर्चा विद्वानों ने की है वे निम्न प्रकार हैं :
- नरसी जी रो माहेरो
- गीत गोविन्द की टीका
- राग गोविन्द
- सोरठ के पद
- मीराबाई की मलार
- गर्वागीत
- फुटकर पद
मीरा के जितने भी पद अद्यावधि प्राप्त हुए हैं ~`चाहे वह किसी भी भाषा अथवा किसी रूप में क्यों न हों उनको फुटकर पदों के रूप में संग्रहीत कर दिया गया है। (मीरा-वृहद्-पद-संग्रह :सम्पादक -पद्मावती शबनम )
माधुर्य भक्ति :
मीरा ने कृष्ण को अपना पति माना है। इस प्रकार अपने को कृष्ण की पत्नी मानकर उन्होंने कृष्ण की मधुर-लीलाओं का आस्वादन किया। उनमें सन्त मत के प्रभाव के कारण रहस्य की छाप पूर्ण रूप में देखी जा सकती है :
मैं गिरधर रंग राती ,सैयाँ मैं।
पचरंग चोला पहर सखी मैं, झिरमिट खेलन जाती।।
ओह झिरमिट माँ मिल्यो साँवरो ,खोल मिली तन गाती।
जिनका पिया परदेश बसत है,लिख लिख भेजें पाती।।
मेरा पिया मेरे हिये बसत है, ना कहुँ आती जाती।
चंदा जायगा सूरज जायगा, जायगी धरणि अकासी।।
पवन पाणी दोनुं ही जायेंगे, अटल रहे अविनासी।
सुरत निरत का दिवला संजोले,मनसा की करले बाती।।
प्रेम हटी का तेल मंगाले जगे रह्या दिन ते राती।
सतगुरु मिलिया साँसा भाग्या, सैन बताई साँची।
ना घर तेरा न घर मेरा, गावे मीरा दासी।।(मीराबाई की पदावली :पद सं ० २० )
अन्यथा मीरा का सारा समय प्रियतम से यही प्रार्थना करते व्यतीत होता है :
गोविंद कबहुँ मिले पिया मोरा।
चरण कंवल कूं हंसि-हंसि देखू राखूं नेणा नेरा।।
निरखण कूं मोहि चाव घणेरो,कब देखूं मुख तेरा।
व्याकुल प्राण धरत नहिं धीरज,मिलि तूं मीत सवेरा।
मीरा के प्रभु हरि गिरधर नागर,ताप तपन बहुतेरा।। (मीराबाई की पदावली :पद १११ )
आली री मेरे नेणाँ बाण परी।
चित्त चढ़ी मेरे माधुरी मूरत,उर बिच आन अड़ी।
कब की ठाढ़ी पंथ निहारूँ , अपने भवन खड़ी।।
कैसे प्राण पिया बिन राखूं, जीवन मूर जड़ी।
मीरा गिरधर हाथ विकानी लोग कहैं बिगड़ी।।(मीराबाई की पदावली :पद ११ )
और अपनी इस स्थिति के आधार वे दृढ़ता पूर्वक कहती हैं :
मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई।
जाके सिर मोर मुकुट,मेरे पति सोई------।।(मीराबाई की पदावली :पद १५ )
साँवरे के रंग में रंग कर वे समस्त लोक-लाज का त्याग कर देती हैं। गिरधर लाल की प्रेम की तीव्रता में उन्हें ऐसा प्रतीत होता है कि ~~ मेरी उनकी प्रीति पुराणी अतः मीरा अपना सर्वस्व कृष्ण-चरणों में न्यौछावर कर स्वयं उनकी दासी बन जाती है।मीरा जिन प्रभु की चरणों में आत्म-समर्पण करती है वह सामान्य प्रियतम नहीं हैं ,जिनसे सहज ही भेंट हो जाय। अतः उनकी यह उक्ति " दरद की मारी मैं वन-वन डोलूं "उनकी प्रेम- स्थिति का सुन्दर परिचय देती है.। कृष्ण- प्राप्ति के लिए वे लाख प्रयत्न करती हैं ~~ यहाँ तक कि आभूषण,वस्त्र आदि उतार कर वैरागिन का वेश धारण कर लेती हैं ,किन्तु प्रियतम उन्हें अपने साक्षात्कार से कृतार्थ नहीं करते। प्रियतम की इस विमुखता से जहाँ उन्हें अत्यधिक संताप होता है वहाँ कुछ-कुछ खीझ भी उनके मन में उठती है और इसी खीझवश वे अपनी सखी से कहती हैं :
देखो सहियाँ हरि मन काठो कियो।
आवन कह गयो अजूं न आयो,करि करि बचन गयो।
खान पान सुध बुध सब बिसरी,कैसे,करि मैं जियो।।
बचन तुम्हारे तुमहीं बिसारे,मन मेरो हर लियो।
मीरा कहे प्रभु गिरधर नागर,तुम बिन फटत हियो।।(मीराबाई की पदावली :पद ५६ )
मीरा प्रियतम से मिलने के लिए नाना प्रकार के उपवास ,व्रत आदि करती हैं जिनके फलस्वरूप सूखे पत्ते की भाँति पीली पड़ जाती है ,सूखकर काँटा जाती है किन्तु उनकी व्यथा को शान्ति किसी प्रकार नहीं मिलती। अन्ततः जब उनका ह्रदय इस पीड़ा से अत्यधिक व्यथित हो उठता है तब वह अपनी पीड़ा को कम करने के लिए उसे इस प्रकार प्रकट कर देती हैं ~~
सखी मेरी नींद नसानी हो।
पिय को पंथ निहारत,सिगरी रैण बिहानी हो।।
सब सखियन मिली सीख दई,मन एक न मानी हो।
बिनि देख्याँ कल नाहिं पड़त,जिय ऐसी ठानी हो।।
अंगि अंगि ब्याकुल भई,मुख पिय पिय बानी हो।
अन्तर वेदन बिरह की, वह पीड़ा न जानी हो।।
ज्यूँ चातक घन को रटे, मछरी जिमि पानी हो।
मीरा ब्याकुल बिरहणी, सुध बुध बिसरानी हो।। (मीराबाई की पदावली :पद ८७ )
कवियत्री ने एकाध पद में वृन्दावन का वर्णन भी किया है ~~
आली म्हाने लागे वृन्दावन नीको।
घर-घर तुलसी ठाकुर पूजा,दरसण गोविंद जी को।
निरमल नीर बहुत जमुना में,भोजन दूध दही को।
रतन सिंघासण आप बिराजे,मुकुट धरयो तुलसी को।.
कुंजन-कुंजन फिरत राधिका,सबद सुणत मुरली को।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, भजन बिना नर फीको।।(मीराबाई की पदावली :पद १६३ )
साभार स्रोत :
- मीराबाई का जीवन और उनका काव्य : मुंशी देवी प्रसाद मुंसिफ
- मीरा की पदावली
- मीरा-वृहद्-पद-संग्रह :सम्पादक -पद्मावती शबनम )
- ब्रजभाषा के कृष्ण- काव्य में माधुर्य भक्ति :डॉ रूपनारायण: :हिन्दी अनुसन्धान परिषद् दिल्ली विश्वविद्यालय दिल्ली के निमित्त :नवयुग प्रकाशन दिल्ली -७
मीरा जी के जीवन चरित्र कावर्णन बहुत ही सुन्दर तरीके से प्रस्तुत किया गया है प्रस्तुत कर्ता बधाई के पात्र है ।
जवाब देंहटाएंलेख पढ़ने के लिए धन्यवाद
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