सोमवार, 5 जून 2017

छीतस्वामी

By : अशर्फी लाल मिश्र
                                                              अशर्फी लाल मिश्र 

जीवन परिचय :
         छीतस्वामी की वल्लभ सम्प्रदाय के भक्त कवियों में गणना की जाती है। गोस्वामी विट्ठलनाथ के शिष्य होने के पूर्व ये मथुरा के पंडा थे। उस समय उन्हें पैसे का कोई आभाव न था। अतः ये स्वभाव से उद्दंड और अक्खड़ थे किन्तु विट्ठलनाथ से दीक्षा लेने के पश्चात् इनके स्वभाव में अत्यधिक परिवर्तन आ गया और वह नम्र और सरल हो गए। डा ० दीनदयाल गुप्त ने इनका जन्म संवत १५६७ वि ० माना है। (अष्टछाप और वल्लभ सम्प्रदाय :पृष्ठ २७८ ) .दो सौ बावन वैष्णवों की वार्ता में छीतस्वामी के विषय में जो कुछ लिखा गया है उसके अनुसार ये यदा कदा पद बनाकर विट्ठलनाथ  जी को सुनाया करते थे। इन पदों से प्रसन्न  होकर एक बार विट्ठलनाथ जी ने इन पर कृपा की ,जिससे छीतस्वामी को साक्षात् कोटि कंदर्प लावण्य-मूर्ति पुरुषोत्तम के दर्शन हुए। इन दर्शनों से उनके पदों में मधुर भाव-धारा बह उठी। 

काव्य रचना :
*स्फुट पद (वर्षोत्सव ग्रंथों में )
वर्ण्य विषय :कृष्ण जन बधाई ,कृष्ण की लीलाएं ,गोस्वामी जी स्तुति ,ब्रज-महिमा

माधुर्य भक्ति :
          छीतस्वामी के आराध्य कृष्ण कृपालु तथा दयालु हैं। वे राधारमण और गोपीवल्लभ हैं। वे नाना प्रकार की लोलाओं का विधान करके भक्तों को सुखी करते हैं। इस प्रकार के उनमें अनेक गुण हाँ जिनका वर्णन करना सम्भव नहीं है :
                      मेरी अखियन के भूषन गिरधारी। 
                      बलि बलि जाऊँ छबीली छवि पर अति आनन्द सुखकारी।।
                      परम उदार चतुर चिन्तामणि दरस परस दुख हारी। 
                      अतुल प्रताप तनक तुलसी दल मानत सेवा भारी।।
                      छीत स्वामी गिरिधरन विशद यश गावत गोकुल नारी। 
                      कहा बरनौं गुनगाथ नाथ के श्री विट्ठल ह्रदय विचारी।। (छीतस्वामी का पद संग्रह )
       कृष्ण-रूप माधुरी तथा गुण माधुरी  से मुग्ध  होकर गोपियों ने श्रीकृष्ण के  सौन्दर्य   का परिचय निम्न  शब्दों में :
                      अरी हौं स्याम रूप लुभानी। 
                      मारग जात मिले ननदनन्दन तन की दशा भुलानी।।
                      मोर  मुकुट   सीस  पर  बाको  बांकी   चितवन  सोहे। 
                      अंग    अंग    भूषन   बने   सजनी   देखे   सो    मोहे।।
                      मोतन   मुरि  के   जब  मुसकाने   तब हौं छाकि रही। 
                      छीतस्वामी गिरधर की  चितवन जाति न कछु कही।। 
          छीतस्वामी ने कृष्ण की मधुर लीलाओं में संयोग की लीलाओं का विशेष रूप से वर्णन किया है। इनमें सुरत और सुरतान्त छवि के पद अधिक हैं और इनका वर्णन सुन्दर  तथा सरस है :
                       सुभग स्याम के अंग राधा विराजे। 
                       नैन आलस भरी सकल निसि सुखकरी कंठहारि भुज धरी स्याम लाजे।।
                       मनक  कंचन  तनी  पीक   दृग  सो  सनी  अति ही रस में बनी रूप भ्राजे। 
                       छीतस्वामी   गिरिधरन  के मन बसी मन ही मन हँसी सुख दियौ आजे।।
         भावोद्दीपन के लिए छीतस्वामी ने वसन्त और पावस ऋतू का सुन्दर वर्णन किया है। वसन्त के इस वर्णन में एक और ऋतु  के समागम से वृन्दावन में जो सुषमा छा गई है ,उसका चित्रण किया गया है :
                      आयो ऋतू राज साज पंचमी बसंत आज ,
                                 बौरे द्रुम  अति अनूप रहे फूली। 
                      बेली पट पीत माल ,सेत पीत कुसुम लाल ,
                                  उढवति,सब स्याम भाम भँवर रहे झूली।।
                     रजनी अति भई स्वच्छ ,सरिता सब विमल पच्छ,
                                   उडगन पति अति अकास बरखत रस मूली। 
                      जती सती सिद्ध साध जित तित तें उठे भाग ,
                                    बिमन सभी तपसी मुनि मन गति भूली।।
                      जुवति जूथ करति केलि ,स्याम सुखद सिंधु झेलि,
                                    लाज लीक दई पेलि ,परसि पगन तूली। 
                       बाजत पखावज उपंग बाँसुरी ,मृदंग, चंग,
                                    यह सब सुख 'छीत' निरखि इच्छा अनुकूली।।
          रास में प्रवेश पा कृष्ण  के साथ विलास करना छीतस्वामी के जीवन का लक्ष्य है। यह विलास सदा ब्रजभूमि में होता ही रहता है। अतः छीतस्वामी विधाता से जन्म-जन्म में ब्रज-निवास की याचना करते हैं। निम्न कवित्त से उनके उपासक का स्वरुप विल्कुल स्पष्ट हो जाता है:
                          अहो विधना ! तो पै अंचरा पसारि मांगों,
                                             जनम जनम दीजो मोहि ब्रज बसिबो। 
                          अहीर की जाति समीप नन्द घर हेरि,
                                              हेरि स्याम सुभग घरी घरी हँसिबो।।
                         दधि के दान मिस ब्रज की बीथिन,
                                               झकझोरन   अंग  अंग को  परसिबो। 
                         छीत स्वामी गिरिधर श्री विट्ठल,
                                               सरद   रैन   रस    रास   बिलसिबो।।
साभार स्रोत:

  • अष्टछाप और वल्लभ सम्प्रदाय:डॉ दीनदयाल गुप्त  
  •  सौ बावन वैष्णवों की वार्ता
  • ब्रजभाषा के कृष्ण- काव्य में माधुर्य भक्ति :डॉ रूपनारायण: :हिन्दी अनुसन्धान परिषद् दिल्ली विश्वविद्यालय दिल्ली के निमित्त :नवयुग प्रकाशन दिल्ली -७ 


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