शनिवार, 17 जून 2017

कृष्णदास

       By : अशर्फी लाल मिश्र
             
                                                             अशर्फी लाल  मिश्र 
                                                                     
                                                                कृष्णदास 

इतिवृत्त :आचार्य वल्लभ के शिष्य कृष्णदास का जन्म डा० दीनदयाल गुप्त के अनुसार वि०  सं० १५५२ में और निधन वि० सं० १६३२ और १६३८ के बीच में हुआ। चौरासी वैष्णवों की वार्ता के अनुसार ये गुजरात के चिलोतरा ग्राम में एक कुनबी के घर में उत्पन्न हुए थे। कृष्णदास अनुसूचित जाति के  होने पर भी आचार्य के विशेष कृपा पात्र थे। किन्तु गोस्वामी विट्ठलनाथ जी   इनके आचरण  से सदैव अप्रसन्न रहते थे।
     गोकुलनाथ रचित वार्ता से इनके जीवन तथा चरित्र पर जो प्रकाश  पड़ता है उसके अनुसार ये रसिक स्वभाव के थे। दूसरी ओर ये चतुर और हठवादी भी बहुत थे। इनकी इस हठवादिता तथा शासन-चतुरता  के कारण इनके समकालीन भक्त अथवा गो० विट्ठलनाथ ही नहीं स्वयं श्रीनाथ जी भी परेशान रहते थे। इसी स्वभाव के कारण जो इनकी दुर्गति हुई- उससे
                  अधो गच्छन्ति तामसाः 
वाली उक्ति स्वयं चरितार्थ हो उठती है। इतने बुरे स्वभाव के होते हुए भी अपनी शासन-चतुरता के कारण कृष्णदास का अपने सम्प्रदाय में विशेष सम्मान था। सम्प्रदाय की नींव को अधिक से अधिक दृढ़ करने की चेष्टा इन्होंने समस्त जीवन भर की। उसके लिए इन्होंने अच्छे अथवा बुरे सभी साधनो का उपयोग किया। तात्पर्य यह है कि इन्होंने भगवान् की कीर्तन-सेवा से इतर श्रीनाथ जी के मन्दिर  की व्यवस्था  तथा सम्प्रदाय के प्रसार की ओर विशेष ध्यान दिया।
काव्य-रचना ;
  आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार (हिन्दी  साहित्य का इतिहास :पृष्ठ १७६ )  निम्न तीन ग्रन्थ  जो प्राप्य नहीं हैं :

  1. जुगल भान चरित्र 
  2. भ्रमरगीत 
  3. प्रेम तत्व-निरूपण 


 * स्फुट पद (वर्षोत्सव ग्रन्थों में संकलित )
माधुर्य भक्ति :
       वृन्दावन में नित्य विहार करने वाले राधा-कृष्ण कृष्णदास के उपास्य हैं। ये उपास्य-युगल रसमय ,रसिक और नवल-किशोर हैं। नाना प्रकार की लीलाएँ  करना ही इनका उद्देश्य है भक्त इन्ही लीलाओं का गान करता है और ध्यान करता है। राधा-कृष्ण की मधुर-लीलाओं का गान ही कृष्णदास की उपासना है। राधा-कृष्ण के प्रेम के अतिरिक्त गोपी-कृष्ण के प्रेम का भी वर्णन इन्होंने किया है। इसी प्रेम की पूर्वराग के पदों में कृष्ण की रूप माधुरी का सुन्दर वर्णन लक्षित होता है :
                  देखि जीऊँ माई नैन रंगीलो। 
                  ले  चलि  सखी  तेरे  पाइ  लागों  जहाँ  गोबरधन  छैल   छबीलो।।
                  रसमय  रसिक  रसिकनी  मोहन  रसमय  बचन  रसाल रसीलो। 
                  नवरंग  लाल  नवल  गुन  सुन्दर  नवरंग भाँति नव  नेह नवीलो।।
                  नख  सिख  सींव  सुभगता  सींवा  सहज सुभाइ  सुदेस    सुहीलो। 
                  कृष्णदास प्रभु रसिक मुकुट मनि सुभग चरित रिपुदलन हठीलो।।
        कृष्ण की रूप-माधुरी से मुग्ध गोपी ,कृष्ण-दर्शन के लिए सदा लालायित रहती है। किन्तु उसे लोक-लाज का भय  उन दर्शनों से सदा वंचित रखता है। अन्त  में जल मरने के निमित्त  वह पनघट पर पहुँचती है और वहाँ कृष्ण को पाकर लोक-लाज को त्याग उन्हीं के प्रेम-रस में मग्न हो जाती है :
                  ग्वालिन कृष्ण दरस सों अटकी। 
                  बार बार पनघट पर आवत सर जमुना जल मटकी।।
                  मनमोहन को रूप सुधानिधि पीवत प्रेम रस गटकी। 
                  कृष्णदास  धन्य  धन्य  राधिका लोक लाज पटकी।। 
      श्रीकृष्ण-मिलन पर गोपी को जिस सुख की प्राप्ति होती है उसका वर्णन भी संक्षेप में किया गया है। इस कारन उनके पदों में भाब-तल्लीनता का गुण अधिक लक्षित नहीं होता। किन्तु कुछ पदों में लीला का सुन्दर वर्णन किया गया है। नृत्य के निम्न पद में तत्कालीन सभी हाव-भाव तथा मुद्राओं का उल्लेख किया गया है:
                  अद्भुत  जोट  स्याम   स्यामा   बर  विहरत   वृन्दावन   चारी। 
                  रूप  कांति  बन  विभव  महिमा  रटत बन्दि श्रुति मति हारी।।
                  पद  विलास  कुनित   मनि  नूपुर  रुनित  मेखला  कुनकारी। 
                  गावत  हस्तक  भेद  दिखावत  नाचत  गति मिलवत न्यारी।।
                  किलकत हँसन कुरखियनि चितवत प्यारे तन प्रीतम प्यारी। 
                  कंठ  बाहु  धरि  मिलि  गावत  हैं  ललितादि  सखी बलिहारी।।
                  मूरतिवंत  सिंगार  सुकीरत  निरखि  चकित मृग अलि नारी। 
                  कृष्णदास प्रभु गोवर्धन धर अतिसय रसिक वृषभानु कुँवारी।।
       कृष्ण की रास-लीला में प्रवेश पाकर उस रस का प्रत्यक्ष रूप से आस्वादन करना कृष्णदास की साधना का एक मात्रा लक्ष्य था। किन्तु वार्ताओं में उनकी अंत की स्थिति का जो वर्णन उपलब्ध होता है उससे यही पता चलता है कि उन्हें इस जीवन में यह लक्ष्य प्राप्त न हो सका। यही कारण है की इस चाह को अभिव्यंजित करने वाले पदों में एक भक्त की भावना अधिक लक्षित होती है;
                 हरिमुख देखे ही जीजै। 
                 सुनहु   सुन्दरी   नैन   सुभग   पुट   स्याम   सुधा   पीजै।।
                 न करि विलम्ब रसिक मनोहर गति पलु पलु सुख छीजै। 
                 बासर   केलि   नवल  जोबन  धन  बिलसि  लाभ   लीजै।।
                 गिरिधर  लाल  उरझि   बीथिन   में   बर   भूषन   कीजै। 
                 पद्मराग      रज    कृष्णदास    को     न्यौछावर     दीजै।।

साभार स्रोत :

  • ब्रजभाषा के कृष्ण- काव्य में माधुर्य भक्ति :डॉ रूपनारायण:हिन्दी अनुसन्धान परिषद् दिल्ली विश्वविद्यालय दिल्ली के निमित्त :नवयुग प्रकाशन दिल्ली -७ 
  • अष्टछाप और वल्लभ सम्प्रदाय :डॉ दीनदयाल गुप्त 
  • हिन्दी  साहित्य का इतिहास;आचार्य रामचन्द्र शुक्ल 

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