By : अशर्फी लाल मिश्र
अशर्फी लाल मिश्र
कुम्भनदास
जीवन परिचय : कुम्भनदास की आचार्य वल्लभ के प्रमुख शिष्यों में गणना की जाती है। वार्ताओं के अनुसार कुम्भनदास श्रीनाथ के प्राकट्य के समय १० वर्ष के थे। श्री नाथ जी का प्राकट्य वि० सं० १५३५ है इस आधार पर इनका जन्म संवत १५२५ विक्रमी ठहरता है। डा० दीनदयाल गुप्त ने इनकी मृत्यु १६३९ विक्रमी स्वीकार की है। (अष्टछाप और वल्लभ सम्प्रदाय :पृष्ठ २४८ )
कुम्भनदास का जन्म ब्रज में ही रहने वाले गोरवा क्षत्रिय घराने में हुआ। आर्थिक दृष्टि से आप सम्पन्न न थे। थोड़ी सी जमीन जीविका निर्वाह के लिए थी। किन्तु इतने पर भी किसी का दान लेने में संकोच होता था। इसीलिये महाराजा मान सिंह के स्वयं देने पर भी इन्होने कुछ भी स्वीकार नहीं किया।
कुम्भनदास स्वभाव से सरल पर स्पष्टवादी थे। धन अथवा मान-मर्यादा की इच्छा इन्हें छू तक न गई थी। अकबर ने फतहपुर सीकरी बुलाकर इनका अत्यधिक सम्मान किया। पर श्रीनाथ जी के दर्शनों के अभाव में वहाँ इन्हें अत्यधिक दुख हुआ। इस बात की अभिव्यक्ति कुंभनदास ने अपने निम्न पद में की है :
संतन को कहा सीकरी सों काम।
आवत जात पनहियाँ टूटी, बिसरि गयो हरि नाम।।
जिनको मुख देखे दुख उपजत,तिनको करनी पड़ी सलाम।
कुंभनदास लाल गिरधर बिनु और सबै बेकाम।।
गोकुलनाथ रचित वार्ताओं से स्पष्ट है कि कुम्भनदास,श्रीनाथ जी के एकांत सखा थे। अतः उनकी सभी लीलाओं में ये साधिकार भाग लेते थे। पर इनकी विशेष आसक्ति कृष्ण की किशोर-लीलाओं के प्रति थी।
काव्य-रचना :
*स्फुट पद (वर्षोत्सव ग्रंथों में ) विद्या-विभाग कांकरोली में पाण्डुलिपि उपलब्ध।
माधुर्य भक्ति :
कुम्भनदास के आराध्यदेव श्रीकृष्ण हैं। वे वास्तविक रूप में जगत के स्रष्टा ,पालक और संहारक हैं। इसीलिये समस्त संसार उनकी पद-वन्दना करता है। वे लीला के लिए नाना प्रकार के अवतार धारण कर भक्तों की रक्षा करते है और अपनी विविध लीलाओं का विस्तार कर उन्हें आनन्दित करते हैं। मधुर-लीलाओं के विस्तार के लिए श्रीकृष्ण की आदि रस-शक्ति राधा उनका सदा साथ देती हैं। इन दोनों की सुन्दरता,गुण और प्रेम अद्वितीय हैं। अतएव राधा-कृष्ण की जोड़ी भक्तों के लिए सदा धेय है।
बनी राधा गिरधर की जोरी।
मनहुँ परस्पर कोटि मदन रति की सुन्दरता चोरी।।
नौतन स्याम नन्दनन्दन ब्रषभानु सुता नव गोरी।
मनहुँ परस्पर बदन चंद को पिवत चकोर चकोरी।
मनहुँ परस्पर बढ्यो रंग अति उपजी प्रीति न थोरी।।
राधा के लिए कुम्भनदास ने कई स्थलों पर स्वामिनी शब्द का व्यवहार किया है जिससे ज्ञात होता है कि वे राधा को कृष्ण की स्वकीया मानते थे। राधा के अतिरिक्त गोपियाँ भी कृष्ण को पति रूप से चाहती हैं। गोपियों का कृष्ण प्रति प्रेम आदर्श प्रेम है। कृष्ण की रूप माधुरी और मुरली माधुरी से मुग्ध हो वे अपना सभी कुछ कृष्ण-चरणों में न्यौछावर कर देती हैं। तब उनकी यही एक मात्र कामना है कि हमें कृष्ण पति-रूप से प्राप्त हो जाएँ। इसके लिए वे लोगों का उपहास भी सहने को भी प्रस्तुत हैं:
हिलगनी कठिन है या मन की।
जाके लिए देखि मेरी सजनी लाज जान सब तन की।।
धर्म जाउ अरु हँसो लोग सब अरु आवहु कुल गारी।
तोऊ न रहे ताहि बिनु देखें जो जाको हितकारी।।
रस लुब्धक एक निमेष न छाँड़त ज्यों अधीन मृग गाने।
कुम्भनदास सनेहु मरमु श्री गोवर्द्धन धार जाने।।
इसी कारण गोपियाँ सदा कृष्ण-दर्शन के लिए लालायित रहती हैं। उनके इस तीव्र प्रेम को देखकर कृष्ण यथावसर साथ हास-परिहास करके उन्हें अपना स्पर्श-सुख प्रदान हैं:
नैननि टगटगी लागि रही।
नखसिख अंग लाल गिरधर के देखत रूप बही।।
प्रातःकाल घर ते उठि सुन्दरि जात ही बेचन दही।
ह्वै गई भेंट स्याम सुन्दर सों अधभर पथ बिच ही।।
घर व्यौहार सकल सुधि भूली ग्वालिन मनसिज दही।
कुंभनदास प्रभु प्रीति बिचारी रसिक कंचुकी गही।।
प्रेम-लीला के पदों में संयोग और वियोग दोनों पक्षों का वर्णन है। संयोग के पदों में सुरतान्त छवि, संभोग-सुख हर्षिता,अभिसारिका तथा मानिनी नायिका का वर्णन विशेष है। संभोग-हर्षिता नायिका के इस चित्रण में कवि ने व्यंजनापूर्ण शैली का प्रयोग किया है:
मिले की फूलि नैना कहि देत।
स्याम सुन्दर मुख चुंबन परसें नाचत मुदित अनेरे।।
नन्दनन्दन पै गये चाहत हैं, मारग श्रवननु घेरे।
कुम्भनदास प्रभु गिरधर रस भरे करत चहूँ दिस फेरे।।
संयोग के पदों की अपेक्षा कुम्भनदास के वियोग के पदों में अधिक संवेदनशीलता है। इन्हें पढ़ कर यही लगता है कि वियोग-भावना में कवि का मन अधिक रमता है। श्रीकृष्ण के मथुरा चले जाने पर उनकी क्रीड़ाओं का स्मरण करते हुए गोपी अपने उद्गारों को जिस रूप में प्रगट करती हैं ,उसमें निश्चय ही प्रभावित करने की शक्ति है :
कहा करों वह सुरति मेरे जिय ते न टरई।
सुन्दर नंद कुँवर के बिछुरे निस दिन नींद न परई।।
बहु बिधि मिलनि प्रानप्यारे की एक निमेष न बिसरई।
वे गुन समुझि समुझि चित नैननि नीर निरन्तर ढरई।।
कछु न सुहाय तलाबेली मनु बिरह अनल तन जरई।
कुंभनदास लाल गिरधर बिनु समाधान को करई।।
साभार स्रोत :
अशर्फी लाल मिश्र
कुम्भनदास
जीवन परिचय : कुम्भनदास की आचार्य वल्लभ के प्रमुख शिष्यों में गणना की जाती है। वार्ताओं के अनुसार कुम्भनदास श्रीनाथ के प्राकट्य के समय १० वर्ष के थे। श्री नाथ जी का प्राकट्य वि० सं० १५३५ है इस आधार पर इनका जन्म संवत १५२५ विक्रमी ठहरता है। डा० दीनदयाल गुप्त ने इनकी मृत्यु १६३९ विक्रमी स्वीकार की है। (अष्टछाप और वल्लभ सम्प्रदाय :पृष्ठ २४८ )
कुम्भनदास का जन्म ब्रज में ही रहने वाले गोरवा क्षत्रिय घराने में हुआ। आर्थिक दृष्टि से आप सम्पन्न न थे। थोड़ी सी जमीन जीविका निर्वाह के लिए थी। किन्तु इतने पर भी किसी का दान लेने में संकोच होता था। इसीलिये महाराजा मान सिंह के स्वयं देने पर भी इन्होने कुछ भी स्वीकार नहीं किया।
कुम्भनदास स्वभाव से सरल पर स्पष्टवादी थे। धन अथवा मान-मर्यादा की इच्छा इन्हें छू तक न गई थी। अकबर ने फतहपुर सीकरी बुलाकर इनका अत्यधिक सम्मान किया। पर श्रीनाथ जी के दर्शनों के अभाव में वहाँ इन्हें अत्यधिक दुख हुआ। इस बात की अभिव्यक्ति कुंभनदास ने अपने निम्न पद में की है :
संतन को कहा सीकरी सों काम।
आवत जात पनहियाँ टूटी, बिसरि गयो हरि नाम।।
जिनको मुख देखे दुख उपजत,तिनको करनी पड़ी सलाम।
कुंभनदास लाल गिरधर बिनु और सबै बेकाम।।
गोकुलनाथ रचित वार्ताओं से स्पष्ट है कि कुम्भनदास,श्रीनाथ जी के एकांत सखा थे। अतः उनकी सभी लीलाओं में ये साधिकार भाग लेते थे। पर इनकी विशेष आसक्ति कृष्ण की किशोर-लीलाओं के प्रति थी।
काव्य-रचना :
*स्फुट पद (वर्षोत्सव ग्रंथों में ) विद्या-विभाग कांकरोली में पाण्डुलिपि उपलब्ध।
माधुर्य भक्ति :
कुम्भनदास के आराध्यदेव श्रीकृष्ण हैं। वे वास्तविक रूप में जगत के स्रष्टा ,पालक और संहारक हैं। इसीलिये समस्त संसार उनकी पद-वन्दना करता है। वे लीला के लिए नाना प्रकार के अवतार धारण कर भक्तों की रक्षा करते है और अपनी विविध लीलाओं का विस्तार कर उन्हें आनन्दित करते हैं। मधुर-लीलाओं के विस्तार के लिए श्रीकृष्ण की आदि रस-शक्ति राधा उनका सदा साथ देती हैं। इन दोनों की सुन्दरता,गुण और प्रेम अद्वितीय हैं। अतएव राधा-कृष्ण की जोड़ी भक्तों के लिए सदा धेय है।
बनी राधा गिरधर की जोरी।
मनहुँ परस्पर कोटि मदन रति की सुन्दरता चोरी।।
नौतन स्याम नन्दनन्दन ब्रषभानु सुता नव गोरी।
मनहुँ परस्पर बदन चंद को पिवत चकोर चकोरी।
मनहुँ परस्पर बढ्यो रंग अति उपजी प्रीति न थोरी।।
राधा के लिए कुम्भनदास ने कई स्थलों पर स्वामिनी शब्द का व्यवहार किया है जिससे ज्ञात होता है कि वे राधा को कृष्ण की स्वकीया मानते थे। राधा के अतिरिक्त गोपियाँ भी कृष्ण को पति रूप से चाहती हैं। गोपियों का कृष्ण प्रति प्रेम आदर्श प्रेम है। कृष्ण की रूप माधुरी और मुरली माधुरी से मुग्ध हो वे अपना सभी कुछ कृष्ण-चरणों में न्यौछावर कर देती हैं। तब उनकी यही एक मात्र कामना है कि हमें कृष्ण पति-रूप से प्राप्त हो जाएँ। इसके लिए वे लोगों का उपहास भी सहने को भी प्रस्तुत हैं:
हिलगनी कठिन है या मन की।
जाके लिए देखि मेरी सजनी लाज जान सब तन की।।
धर्म जाउ अरु हँसो लोग सब अरु आवहु कुल गारी।
तोऊ न रहे ताहि बिनु देखें जो जाको हितकारी।।
रस लुब्धक एक निमेष न छाँड़त ज्यों अधीन मृग गाने।
कुम्भनदास सनेहु मरमु श्री गोवर्द्धन धार जाने।।
इसी कारण गोपियाँ सदा कृष्ण-दर्शन के लिए लालायित रहती हैं। उनके इस तीव्र प्रेम को देखकर कृष्ण यथावसर साथ हास-परिहास करके उन्हें अपना स्पर्श-सुख प्रदान हैं:
नैननि टगटगी लागि रही।
नखसिख अंग लाल गिरधर के देखत रूप बही।।
प्रातःकाल घर ते उठि सुन्दरि जात ही बेचन दही।
ह्वै गई भेंट स्याम सुन्दर सों अधभर पथ बिच ही।।
घर व्यौहार सकल सुधि भूली ग्वालिन मनसिज दही।
कुंभनदास प्रभु प्रीति बिचारी रसिक कंचुकी गही।।
प्रेम-लीला के पदों में संयोग और वियोग दोनों पक्षों का वर्णन है। संयोग के पदों में सुरतान्त छवि, संभोग-सुख हर्षिता,अभिसारिका तथा मानिनी नायिका का वर्णन विशेष है। संभोग-हर्षिता नायिका के इस चित्रण में कवि ने व्यंजनापूर्ण शैली का प्रयोग किया है:
मिले की फूलि नैना कहि देत।
स्याम सुन्दर मुख चुंबन परसें नाचत मुदित अनेरे।।
नन्दनन्दन पै गये चाहत हैं, मारग श्रवननु घेरे।
कुम्भनदास प्रभु गिरधर रस भरे करत चहूँ दिस फेरे।।
संयोग के पदों की अपेक्षा कुम्भनदास के वियोग के पदों में अधिक संवेदनशीलता है। इन्हें पढ़ कर यही लगता है कि वियोग-भावना में कवि का मन अधिक रमता है। श्रीकृष्ण के मथुरा चले जाने पर उनकी क्रीड़ाओं का स्मरण करते हुए गोपी अपने उद्गारों को जिस रूप में प्रगट करती हैं ,उसमें निश्चय ही प्रभावित करने की शक्ति है :
कहा करों वह सुरति मेरे जिय ते न टरई।
सुन्दर नंद कुँवर के बिछुरे निस दिन नींद न परई।।
बहु बिधि मिलनि प्रानप्यारे की एक निमेष न बिसरई।
वे गुन समुझि समुझि चित नैननि नीर निरन्तर ढरई।।
कछु न सुहाय तलाबेली मनु बिरह अनल तन जरई।
कुंभनदास लाल गिरधर बिनु समाधान को करई।।
साभार स्रोत :
- अष्टछाप और वल्लभ सम्प्रदाय :डॉ दीनदयाल गुप्त
- ब्रजभाषा के कृष्ण- काव्य में माधुर्य भक्ति :डॉ रूपनारायण:हिन्दी अनुसन्धान परिषद् दिल्ली विश्वविद्यालय दिल्ली के निमित्त :नवयुग प्रकाशन दिल्ली -७
- विद्या-विभाग कांकरोली में पाण्डुलिपि उपलब्ध
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