By : अशर्फी लाल मिश्र
अशर्फी लाल मिश्र
परिचय :
महाप्रभु वल्लभाचार्य के प्रसिद्ध शिष्य परमानन्ददास का समय हिन्दी साहित्य के इतिहास-लेखकों ने वि ० सं ० १६०६ के आसपास स्वीकार किया है (हिन्दी साहित्य का इतिहास :आचार्य रामचन्द्र शुक्ल :१७७ ) किन्तु इनके निश्चित जन्म संवत तथा मृत्यु संवत के सम्बन्ध में लेखकों ने कोई चर्चा नहीं की। वल्लभ सम्प्रदाय में यह प्रसिद्द है कि परमानन्ददास वल्लभाचार्य से १५ वर्ष छोटे थे। वल्लभाचार्य का जन्म १५३५ विक्रमी ,वैशाख कृष्ण पक्ष एकादशी को हुआ था। तदनुसार परमानन्ददास का जन्म वि ० सं ० १५५० स्थिर होता है। इस मत की पुष्टि इससे भी होती है कि परमानन्ददास अपने विवाह को टालकर अड़ेल (प्रयाग )आये और यहीं उनकी सर्वप्रथम वल्लभाचार्य से भेंट हुई। यह भेंट और दीक्षा विक्रम संवत १५७७ में हुई। (वल्लभ दिग्विजय :गो० यदुनाथ :पृष्ठ ५३ ) ये संगीत में पारंगत थे।
परमानन्ददास के माता-पिता के सम्बन्ध में अभी तक कुछ पता नहीं है। किन्तु उनकी वार्ता से स्पष्ट होता है कि वे कन्नौज के रहने वाले ब्राह्मण कुल के थे। (चौरासी वैष्णवन की वार्ता :पृष्ठ ७८८ ). उनके माता-पिता बहुत धनी थे अतः परमानन्ददास का बचपन सुख-चैन से व्यतीत हुआ। बचपन से ही इनके शिक्षा की उचित व्यवस्था थी ,फलतः ये एक विद्वान ,संगीतज्ञ तथा काव्य-रचना में निपुण हो सके।
परमानन्ददास की बचपन से ही आध्यात्मिक चर्चा में विशेष रूचि थी। ऐसा प्रसिद्ध है कि एक बार आप मकर पर्व पर स्नान करने के लिए प्रयाग गए। वहाँ महाप्रभु वल्लभ से भेंट हो जाने पर इन्हींने उनसे दीक्षा ग्रहण की और उन्हीं के साथ रहने लगे। इस प्रकार महाप्रभु के साथ घूमते हुए ये गोवर्धन पर आ गए। सुरभि कुण्ड उनका स्थाई निवास स्थान था। (परमानन्द सागर :डा० गोवर्द्धननाथ शुक्ल :भूमिका :११ ) इस स्थान पर रहते हुए वि० संवत १६४१ में इन्होंने अपने नश्वर शरीर का परित्याग कर दिया। (भाव-प्रकाश :गो० हरिराय :पृष्ठ ८३३ )
रचनाएँ :
अशर्फी लाल मिश्र
परिचय :
महाप्रभु वल्लभाचार्य के प्रसिद्ध शिष्य परमानन्ददास का समय हिन्दी साहित्य के इतिहास-लेखकों ने वि ० सं ० १६०६ के आसपास स्वीकार किया है (हिन्दी साहित्य का इतिहास :आचार्य रामचन्द्र शुक्ल :१७७ ) किन्तु इनके निश्चित जन्म संवत तथा मृत्यु संवत के सम्बन्ध में लेखकों ने कोई चर्चा नहीं की। वल्लभ सम्प्रदाय में यह प्रसिद्द है कि परमानन्ददास वल्लभाचार्य से १५ वर्ष छोटे थे। वल्लभाचार्य का जन्म १५३५ विक्रमी ,वैशाख कृष्ण पक्ष एकादशी को हुआ था। तदनुसार परमानन्ददास का जन्म वि ० सं ० १५५० स्थिर होता है। इस मत की पुष्टि इससे भी होती है कि परमानन्ददास अपने विवाह को टालकर अड़ेल (प्रयाग )आये और यहीं उनकी सर्वप्रथम वल्लभाचार्य से भेंट हुई। यह भेंट और दीक्षा विक्रम संवत १५७७ में हुई। (वल्लभ दिग्विजय :गो० यदुनाथ :पृष्ठ ५३ ) ये संगीत में पारंगत थे।
परमानन्ददास के माता-पिता के सम्बन्ध में अभी तक कुछ पता नहीं है। किन्तु उनकी वार्ता से स्पष्ट होता है कि वे कन्नौज के रहने वाले ब्राह्मण कुल के थे। (चौरासी वैष्णवन की वार्ता :पृष्ठ ७८८ ). उनके माता-पिता बहुत धनी थे अतः परमानन्ददास का बचपन सुख-चैन से व्यतीत हुआ। बचपन से ही इनके शिक्षा की उचित व्यवस्था थी ,फलतः ये एक विद्वान ,संगीतज्ञ तथा काव्य-रचना में निपुण हो सके।
परमानन्ददास की बचपन से ही आध्यात्मिक चर्चा में विशेष रूचि थी। ऐसा प्रसिद्ध है कि एक बार आप मकर पर्व पर स्नान करने के लिए प्रयाग गए। वहाँ महाप्रभु वल्लभ से भेंट हो जाने पर इन्हींने उनसे दीक्षा ग्रहण की और उन्हीं के साथ रहने लगे। इस प्रकार महाप्रभु के साथ घूमते हुए ये गोवर्धन पर आ गए। सुरभि कुण्ड उनका स्थाई निवास स्थान था। (परमानन्द सागर :डा० गोवर्द्धननाथ शुक्ल :भूमिका :११ ) इस स्थान पर रहते हुए वि० संवत १६४१ में इन्होंने अपने नश्वर शरीर का परित्याग कर दिया। (भाव-प्रकाश :गो० हरिराय :पृष्ठ ८३३ )
रचनाएँ :
- दान लीला
- उद्धव लीला
- ध्रुव चरित्र
- संस्कृत रत्नमाला
- दधि लीला
- परमानन्ददास जी के पद
- परमानन्द सागर
उपर्युक्त ग्रन्थों में पहले पाँच ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है छठा ग्रन्थ सातवें का ही अंगमात्र है। उनकी एक मात्र प्रामाणिक कृति परमानन्द सागर है।
माधुर्य भक्ति :
परमानन्ददास के उपास्य रसिक नन्दनन्दन हैं। रसिक शिरोमणि तथा रस-रूप होने के साथ-साथ श्रीकृष्ण की रूप माधुरी भी अपूर्व है। इस रूप-माधुरी का एक बार पान करके ह्रदय सदा उसी के लिए लालायित रहता है। इसी कारण कवि ने कहा है कि श्रीकृष्ण को पाकर सुन्दरता की शोभा बढ़ी है क्योंकि सौन्दर्य के वास्तविक आश्रय श्रीकृष्ण ही हैं।
सुन्दरता गोपालहिं सोहै।
कहत न बने नैन मन आनन्द जा देखत रति नायक मोहै।।
सुन्दर चरण कमल गति सुन्दर गुंजाफल अवतंस।
सुन्दर बनमाला उर मंडित सुन्दर गिरा मनों कल हंस।।
सुन्दर बेनु मुकुट मनि सुन्दर सब अंग स्याम सरीर।
सुन्दर बदन अवलोकनि सुन्दर सुन्दर ते बलवीर।।
वेद पुरान निरूपित बहु विधि ब्रह्म नराकृति रूप निवास।
बलि बलि जाऊँ मनोहर मूरति ह्रदय बसों परमानन्ददास।। :(परमानन्द सागर :डा० गोवर्द्धननाथ शुक्ल :पृष्ठ ४४९ )
परमानन्ददास ने राधा और कृष्ण के प्रेम की चर्चा कई पदों में की है। दोनों का प्रेम ही सच्चा प्रेम है। .इस कारण दोनों की जोड़ी अपूर्व है। केवल प्रेम की दृष्टि से ही नहीं वल्कि रूप और गुण दोनों में समान हैं। इसीलिए भक्त राधा-कृष्ण और उनकी लीलाओं का सतत गान तथा ध्यान करके आनन्द-लाभ करता है।
आजु बनि दम्पति वर जोरी।
सांवल गौर बरन रूप निधि नन्द किसोर ब्रजभान किसोरी।।
एक सीस पचरंग चूनरी एक सीस अद्भुत पर षोरी ।
मृगमद तिलक एक के माथे एक माथे सोहै मृदु रोरी।।
नख सिख उभय भाँति भूषन छवि रितु बसंत खेलत मिलि होरी।
अति सै रंग बढ्यो 'परमानन्द ' प्रीति परस्पर नाहिन थोरी।। (परमानन्द सागर :पृष्ठ ७७ )
राधा के प्रेम के अतिरिक्त परमानन्ददास ने गोपियों के प्रेम का भी वर्णन अनेक पदों में किया है। कृष्ण की रूप माधुरी से मुग्ध गोपियाँ उनके चरणों में अपना तन,मन समर्पित कर देती हैं। कृष्ण की प्राप्ति के लिए वे कठोर से कठोर व्रत तथा उपवास आदि का पालन करती हैं। और उनके लिए वे कुल के बन्धन ,समाज के बन्धन इहलोक तथा परलोक सभी कुछ छोड़ने को प्रस्तुत हैं इसी में आत्मसमर्पण का सर्वोत्कर्ष है :
अरी गुपाल सों मेरो मन मान्यों,कहा करैगो कोउ री।
हौं तो चरन कमल लपटानी जो भावै सो होउ री।।
माइ रिसाई, बाप घर मारै,हंसे बटाऊ लोय री ।
अब तो जिय ऐसी बनि आई विधना रच्यो संजोग री।।
बरु ये लोक जाइ किन मेरो अरु परलोक नसाइ री।
नंद नंदन हौं तऊ न छाँड़ों मिलोंगी निसान बजाई री।।
बहुरयो यह तन धरि कहाँ पैहौं वल्लभ भेष मुरारि री।
परमानन्द स्वाभी' के ऊपर सरबसु देहौं वारि री।। (परमानन्द सागर :पृष्ठ १५० )
गोपियों की इस प्रेम-तीव्रता को देखकर ही कृष्ण नाना प्रकार से उनकी मनोकामना पूर्ण करते हैं ~
नैक लाल टेको मेरी बहियाँ।
औघट घाट चढ्यो नहिँ जाई रपटत हौं कालिन्दी महियाँ।।
सुन्दर स्याम कमल दल लोचन देखि स्वरुप ग़ुबाल अरुझानी।
उपजी प्रीति काम उर अन्तर तब नागर नागरी पहचानी।।
हंसि ब्रजनाथ गह्यो कर पल्लव जाते गगरी गिरन न पावै।
'परमानन्द 'ग्वालिन सयानी कमल नयन कर परस्योहि भावै।।(परमानन्द सागर :पृष्ठ २५३ )
परमानन्ददास ने गोपियों और कृष्ण की प्रेम-लीलाओं का वर्णन संयोग और वियोग दोनों पक्षों में किया है। संयोग पक्ष की प्रेम-लीलाओं का आरम्भ बाल्य कालीन लीलाओं में होता है। बचपन का यह स्नेह नाना प्रकार के हास-परिहास के बीच प्रणय में परिवर्तित हो जाता है। इसी हास-परिहास एवं छेड़-छाड़ का रूप हमें दानलीला के पदों में लक्षित होता है। ऐसे ही कुछ पदों से रति-लीला की व्यंजना होती है। पर यह केवल विनोद है। इस पद की अन्तिम पंक्ति से यह बात पूर्ण रूपेण स्पष्ट हो जाती है।
काहे को सिथिल किए मेरे पट।
नंद गोप सुत छांड़ि अटपटी बार बार वन में कत रोकत बट।।
कर लंपट परसो न कठिन कुच अधिक बिधा रहे निधरक घट।
ऐसो बिरुध है खेल तुम्हारो पीर न जानत गहत पराई लट।।
कहूँ न सुनी कबहूँ नहिँ देखी बाट परत कालिन्दी के तट।
'परमानन्द 'प्रीति अन्दर की सुन्दर स्याम विनोद सुरत नट।। (परमानन्द सागर :पृष्ठ ५८ )
परमानन्ददास ने अपने पदों में राधा-कृष्ण अथवा गोपी-कृष्ण के विलास का स्पष्ट रूप से कहीं भी वर्णन नहीं किया है। उन्होंने विलास का केवल संकेत मात्र अपने पदों में किया है। यद्यपि गोपियों में भी श्रीकृष्ण को पति रूप में प्राप्त इच्छा लक्षित होती है,किन्तु उसकी स्थिति राधा से भिन्न है। सिद्ध और साधक में जो अन्तर है वही अन्तर हमें राधा और गोपियों में लक्षित होता है। यही कारण है कि कृष्ण राधा के चरण-चाँपते हुए भी हमारे सम्मुख आते हैं,किन्तु गोपियाँ सर्वत्र कृष्ण की पद-वन्दना करते हुए दृष्टिगत होती हैं ,गोपियाँ रति की अभिलाषा करती हैं ,किन्तु रति-सुख केवल राधा को ही प्राप्त होता है :
मदन गोपाल बलैये लैहौं।
बृंदा बिपिन तरनि तनया तट चलि ब्रजनाथ आलिंगन दैहौं।।
सघन निकुंज सुखद रति आलय नव कुसुमनि की सेज बिछैहौं।
त्रिगुन समीर पंथ पग बिहरत मिलि तुम संग सुरति सुख पैहौं।।
अपनी चोंप ते जब बोलहुगे तब गृह छाँड़ि अकेली ऐहौं।
'परमानन्द 'प्रभु चारु बदन कौ उचित उगार मुदित ह्वै खैहौं।।(परमानन्द सागर :पृष्ठ १२३ )
तथा ~
राधे जू हारावली टूटी।
उरज कमल दल माल अरगजी वाम कपोल अलक लट छूटी।।
बर उर उरज करज कर अंकित बांह जुगल बलयावलि फूटी।
कंचुकी चीर बिबिध रंग रंगति गिरधर अध र माधुरी घूटी।।
आलस बलित नैन अनियारे अरून उनींदे रजनी षूटी।
'परमानन्द ' प्रभु सुरत सने रस मदन नृपति की सेवा लूटी।।(परमानन्द सागर :पृष्ठ १३८ )
साभार स्रोत:
परमानन्द सागर :डा० गोवर्द्धननाथ शुक्ल
ब्रजभाषा के कृष्ण- काव्य में माधुर्य भक्ति :डॉ रूपनारायण:हिन्दी अनुसन्धान परिषद् दिल्ली विश्वविद्यालय दिल्ली के निमित्त :नवयुग प्रकाशन दिल्ली -७
हिन्दी साहित्य का इतिहास :आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
वल्लभ दिग्विजय :गो० यदुनाथ
चौरासी वैष्णवन की वार्ता
भाव-प्रकाश :गो० हरिराय
सुन्दरता गोपालहिं सोहै।
कहत न बने नैन मन आनन्द जा देखत रति नायक मोहै।।
सुन्दर चरण कमल गति सुन्दर गुंजाफल अवतंस।
सुन्दर बनमाला उर मंडित सुन्दर गिरा मनों कल हंस।।
सुन्दर बेनु मुकुट मनि सुन्दर सब अंग स्याम सरीर।
सुन्दर बदन अवलोकनि सुन्दर सुन्दर ते बलवीर।।
वेद पुरान निरूपित बहु विधि ब्रह्म नराकृति रूप निवास।
बलि बलि जाऊँ मनोहर मूरति ह्रदय बसों परमानन्ददास।। :(परमानन्द सागर :डा० गोवर्द्धननाथ शुक्ल :पृष्ठ ४४९ )
परमानन्ददास ने राधा और कृष्ण के प्रेम की चर्चा कई पदों में की है। दोनों का प्रेम ही सच्चा प्रेम है। .इस कारण दोनों की जोड़ी अपूर्व है। केवल प्रेम की दृष्टि से ही नहीं वल्कि रूप और गुण दोनों में समान हैं। इसीलिए भक्त राधा-कृष्ण और उनकी लीलाओं का सतत गान तथा ध्यान करके आनन्द-लाभ करता है।
आजु बनि दम्पति वर जोरी।
सांवल गौर बरन रूप निधि नन्द किसोर ब्रजभान किसोरी।।
एक सीस पचरंग चूनरी एक सीस अद्भुत पर षोरी ।
मृगमद तिलक एक के माथे एक माथे सोहै मृदु रोरी।।
नख सिख उभय भाँति भूषन छवि रितु बसंत खेलत मिलि होरी।
अति सै रंग बढ्यो 'परमानन्द ' प्रीति परस्पर नाहिन थोरी।। (परमानन्द सागर :पृष्ठ ७७ )
राधा के प्रेम के अतिरिक्त परमानन्ददास ने गोपियों के प्रेम का भी वर्णन अनेक पदों में किया है। कृष्ण की रूप माधुरी से मुग्ध गोपियाँ उनके चरणों में अपना तन,मन समर्पित कर देती हैं। कृष्ण की प्राप्ति के लिए वे कठोर से कठोर व्रत तथा उपवास आदि का पालन करती हैं। और उनके लिए वे कुल के बन्धन ,समाज के बन्धन इहलोक तथा परलोक सभी कुछ छोड़ने को प्रस्तुत हैं इसी में आत्मसमर्पण का सर्वोत्कर्ष है :
अरी गुपाल सों मेरो मन मान्यों,कहा करैगो कोउ री।
हौं तो चरन कमल लपटानी जो भावै सो होउ री।।
माइ रिसाई, बाप घर मारै,हंसे बटाऊ लोय री ।
अब तो जिय ऐसी बनि आई विधना रच्यो संजोग री।।
बरु ये लोक जाइ किन मेरो अरु परलोक नसाइ री।
नंद नंदन हौं तऊ न छाँड़ों मिलोंगी निसान बजाई री।।
बहुरयो यह तन धरि कहाँ पैहौं वल्लभ भेष मुरारि री।
परमानन्द स्वाभी' के ऊपर सरबसु देहौं वारि री।। (परमानन्द सागर :पृष्ठ १५० )
गोपियों की इस प्रेम-तीव्रता को देखकर ही कृष्ण नाना प्रकार से उनकी मनोकामना पूर्ण करते हैं ~
नैक लाल टेको मेरी बहियाँ।
औघट घाट चढ्यो नहिँ जाई रपटत हौं कालिन्दी महियाँ।।
सुन्दर स्याम कमल दल लोचन देखि स्वरुप ग़ुबाल अरुझानी।
उपजी प्रीति काम उर अन्तर तब नागर नागरी पहचानी।।
हंसि ब्रजनाथ गह्यो कर पल्लव जाते गगरी गिरन न पावै।
'परमानन्द 'ग्वालिन सयानी कमल नयन कर परस्योहि भावै।।(परमानन्द सागर :पृष्ठ २५३ )
परमानन्ददास ने गोपियों और कृष्ण की प्रेम-लीलाओं का वर्णन संयोग और वियोग दोनों पक्षों में किया है। संयोग पक्ष की प्रेम-लीलाओं का आरम्भ बाल्य कालीन लीलाओं में होता है। बचपन का यह स्नेह नाना प्रकार के हास-परिहास के बीच प्रणय में परिवर्तित हो जाता है। इसी हास-परिहास एवं छेड़-छाड़ का रूप हमें दानलीला के पदों में लक्षित होता है। ऐसे ही कुछ पदों से रति-लीला की व्यंजना होती है। पर यह केवल विनोद है। इस पद की अन्तिम पंक्ति से यह बात पूर्ण रूपेण स्पष्ट हो जाती है।
काहे को सिथिल किए मेरे पट।
नंद गोप सुत छांड़ि अटपटी बार बार वन में कत रोकत बट।।
कर लंपट परसो न कठिन कुच अधिक बिधा रहे निधरक घट।
ऐसो बिरुध है खेल तुम्हारो पीर न जानत गहत पराई लट।।
कहूँ न सुनी कबहूँ नहिँ देखी बाट परत कालिन्दी के तट।
'परमानन्द 'प्रीति अन्दर की सुन्दर स्याम विनोद सुरत नट।। (परमानन्द सागर :पृष्ठ ५८ )
परमानन्ददास ने अपने पदों में राधा-कृष्ण अथवा गोपी-कृष्ण के विलास का स्पष्ट रूप से कहीं भी वर्णन नहीं किया है। उन्होंने विलास का केवल संकेत मात्र अपने पदों में किया है। यद्यपि गोपियों में भी श्रीकृष्ण को पति रूप में प्राप्त इच्छा लक्षित होती है,किन्तु उसकी स्थिति राधा से भिन्न है। सिद्ध और साधक में जो अन्तर है वही अन्तर हमें राधा और गोपियों में लक्षित होता है। यही कारण है कि कृष्ण राधा के चरण-चाँपते हुए भी हमारे सम्मुख आते हैं,किन्तु गोपियाँ सर्वत्र कृष्ण की पद-वन्दना करते हुए दृष्टिगत होती हैं ,गोपियाँ रति की अभिलाषा करती हैं ,किन्तु रति-सुख केवल राधा को ही प्राप्त होता है :
मदन गोपाल बलैये लैहौं।
बृंदा बिपिन तरनि तनया तट चलि ब्रजनाथ आलिंगन दैहौं।।
सघन निकुंज सुखद रति आलय नव कुसुमनि की सेज बिछैहौं।
त्रिगुन समीर पंथ पग बिहरत मिलि तुम संग सुरति सुख पैहौं।।
अपनी चोंप ते जब बोलहुगे तब गृह छाँड़ि अकेली ऐहौं।
'परमानन्द 'प्रभु चारु बदन कौ उचित उगार मुदित ह्वै खैहौं।।(परमानन्द सागर :पृष्ठ १२३ )
तथा ~
राधे जू हारावली टूटी।
उरज कमल दल माल अरगजी वाम कपोल अलक लट छूटी।।
बर उर उरज करज कर अंकित बांह जुगल बलयावलि फूटी।
कंचुकी चीर बिबिध रंग रंगति गिरधर अध र माधुरी घूटी।।
आलस बलित नैन अनियारे अरून उनींदे रजनी षूटी।
'परमानन्द ' प्रभु सुरत सने रस मदन नृपति की सेवा लूटी।।(परमानन्द सागर :पृष्ठ १३८ )
साभार स्रोत:
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