By : अशर्फी लाल मिश्र
अशर्फी लाल मिश्र
परिचय :
सूरदास मदनमोहन की गौड़ीय सम्प्रदाय के प्रमुख भक्त कवियों में गणना की जाती है। सूरदास मदनमोहन अकबर शासन काल में संडीला ,जिला हरदोई उत्तर प्रदेश में अमीन थे। इसी आधार पर इनका समय सोलहवीं शताब्दी अनुमानित किया जा सकता है। ये जाति के ब्राह्मण थे। इन्होंने किसी गौड़ीय विद्वान से दीक्षा ली।
सूरदास मदनमोहन का वास्तविक नाम सूरध्वज था। किन्तु कविता में इन्होंने अपने इस नाम का कभी प्रयोग नहीं किया। मदनमोहन के भक्त होने के कारण इन्होने सूरदास नाम के साथ मदनमोहन को भी अपने पदों में स्थान दिया। जिस प्रकार ब्रज भाषा के प्रमुख कवि सूर ( बल्लभ सम्प्रदायी ) ने अपने पदों में सूर और श्याम को एक रूप देने की चेष्टा की उसी प्रकार इन्होंने भी सूरदास और मदनमोहन में ऐक्य स्थापित करने का प्रयत्न किया है। दोनों कवियों की छाप में सूरदास शब्द समान रूप से मिलता है किन्तु एक श्याम की बाँह पकड़ कर चला है तो दूसरा मदनमोहन का आश्रय लेकर और यही दोनों के पदों को पहचानने की मात्र विधि है। उन पदों में जहाँ केवल 'सूरदास ' छपा है ~~ पदों के रचयिता का निश्चय कर सकना कठिन है। इस कारण सूरदास नाम के सभी पद महाकवि सूरदास के नाम पर संकलित कर दिए गए है। इसलिए सूरदास मदनमोहन के पदों की उपलब्धि कठिनाई का कारण हो रही है। आचार्य राम चंद्र शुक्ल ने हिंदी साहित्य के इतिहास में सूरदास मदनमोहन के नाम से जो पद दिया है वही पद नन्द दुलारे बाजपेयी द्वारा सम्पादित सूरसागर में भी मिल जाता है।
नवलकिशोर नवल नागरिया।
अपनी भुजा स्याम भुज ऊपर स्याम भुजा अपने उर धरिया।।
करत विनोद तरनि तनया तट ,स्यामा स्याम उमगि रसभरिया।
यों लपटाई रहे उर अंतर् मरकतमणि कंचन ज्यों जरिया।।
उपमा को घन दामिनी नाहीं कंदरप कोटि वारने करिया।
श्री सूरदास मदनमोहन बलि जोरी नन्दनन्दन वृषभानु दुलरिया।।(सूरसागर :सं ० नन्ददुलारे बाजपेयी :पृष्ठ ५०१ )
भक्तमाल में नाभादास जी ने सूरदास मदनमोहन के सम्बन्ध में जो छप्पय लिखा है उससे ज्ञात होता है की ये गान- विद्या और काव्य रचना में बहुत निपुण थे। इनके उपास्य राधा-कृष्ण थे। युगल किशोर की रहस्यमयी लीलाओं में पूर्ण प्रवेश के कारण इन्हें सुहृद सहचरि का अवतार मन गया है। भक्तमाल के छप्पय की टीका करते हुए प्रियादास जी ने सूरदास के जीवन की उस घटना का भी उल्लेख किया है जिसके कारण ये संडीला की अमीनी छोड़कर वृन्दावन चले गए थे।
रचनाएँ :
सूरदास मदनमोहन के लिखे हुए स्फुट पद ही आज उपलब्ध होते हैं ,जिनका संकलन सुह्रद वाणी के रूप में किया गया है। (प्रकाशन :बाबा कृष्णदास :राजस्थान प्रेस जयपुर :वि ० सं ० २००० )
माधुर्य भक्ति :
इनके उपास्य नवल किशोर राधा-कृष्ण हैं। यह अनुपम जोड़ी कुंजों में रस-लीला के द्वारा सखी और सखाओं को आनन्दित करती है। राधा और कृष्ण दोनों अनुपम सुन्दर हैं। जहाँ कृष्ण श्याम वर्ण हैं ,वहाँ राधा गौर वर्ण हैं ,किन्तु शारीरिक गठन में दोनों समान हैं। सिद्धान्तः कृष्ण ही राधा और राधा ही कृष्ण हैं। ये उसी प्रकार एक हैं जिस प्रकार धूप और छाँह ,घन और दामिनी तथा दृष्टि और नयन। फिर भी लीला के लिए उन्होंने दो विग्रह धारण किये हुए हैं~
माई री राधा वल्लभ वल्लभ राधा।
वे उनमै उनमै वे वसत।।
घाम छाँह घन दामिनी कसौटी लीक ज्यों कसत।
दृष्टि नैन स्वास वैन नैन सैन दोऊ लसत।
सूरदास मदनमोहन सनमुख ठाढ़े ही हसत। (सूरदास की वाणी ;पृष्ठ ९ )
सूरदास मदनमोहन के कृष्ण मायाधिपति हैं। उनकी माया समस्त जगत को अपने वश में करने वाली है,किन्तु मायाधिपति होने पर भी कृष्ण स्वयं प्रेम के वशीभूत हैं। इसी कारण जिस प्रकार इनकी माया समस्त जगत को नचाती है उसी प्रकार गोपयुवतियाँ इन्हें अपने प्रेम के बल पर नचाती हैं।
राधा सर्वांग सुंदरी हैं ~~ उनके रूप लावण्य की समता कमला , शची और स्वयं कामदेव की पत्नी रति भी नहीं कर सकतीं। रूप ही नहीं गुण और प्रेम की दृष्टि से भी राधा अनुपम हैं। इसीलिए श्रीकृष्ण उनके प्रेम का आस्वादन करने के लिए ब्रज में प्रकट हुए हैं। सामाजिक सम्बन्ध की दृष्टि से सूरदास मदनमोहन ने राधा को कृष्ण का स्वकीया माना है। राधा-विवाह की शंका निवारण करने के लिए इन्होंने भी सूरसागर के रचयिता के समान राधा-कृष्ण का विवाह रचाया है,जिसमें गोपियाँ आहूत अभ्यागत हैं तथा इनके विवाह में मंगलाचार गाती हैं। दोनों को वर-वधू के वेश में देख कर कवि की मानसिक साध पूरी हो जाती है। यथा ~~
गोपी सबै न्यौते आई, मुरली बरन्योति बुलाई।
सखियनि मिलि मंगल गाये ,बहु फुलनि मंडप छाये।।
छाये जो फूलनि कुंज मंडप पुलिन में वेदी रची।
बैठे जु स्यामा स्यामवर त्रयीलोक की शोभा सची।।
सूरदासहिं भयो आनन्द पूजी मन की साधा।
मदनमोहन लाल दूलहु दुलहिनि श्री राधा।।
स्वकीया के अतिरिक्त कुछ परकीयाभाव परक पद भी इनकी वाणी में मिल जाते हैं। किन्तु इन पदों का सम्बन्ध विशेष रूप से राधा के साथ न होकर सामान्य गोपयुवतियों के साथ है। इस प्रकार लोक लाज,कुलकानि छोड़कर कृष्ण के पास जाने का अवसर यमुना-तीर पर बजती हुई मुरली की ध्वनि को सुनकर उत्पन्न होता है। उस चर अचर सभी को स्तम्भित कर देने वाली ध्वनि को सुनकर यदि माता-पिता और पुत्र-पति आदि का विस्मरण हो जाता है तो कोई आश्चर्य की कोई बात नहीं।
चलो री मुरली सुनिए कान्ह बजाई जमुना तीर।
तजि लोक लाज कुल की कानि गुरुजन की भीर।।
जमुना जल थकित भयो वच्छा न पीयें छीर।
सुर विमान थकित भये थकित कोकिल कीर।।
देह की सुधि बिसरि गई बिसरयो तन को चीर।
मात तात बिसर गये बिसरे बालक वीर।।
मुरली धुनि मधुर बाजै कैसे के घरों धीर।
श्री सूरदास मदनमोहन जानत हौं यह पीर।।
राधा-कृष्ण की संयोग पक्ष की लीलायें परस्पर हास -परिहास अथवा छेद-छाड़ से आरम्भ होतीहै। इसी पारम्परिक है-परिहास का परिणाम रूप ठगौरी में दिखाई देता है। तदनन्तर गुप्त मिलन के लिए जिस तिस प्रकार से अवसर ढूंढ लिया जाता है। स्वयं श्रीकृष्ण भी गुप्त कुञ्ज-स्थलों पर अपनी प्रेयसी की प्रतीक्षा करते देखे जाते हैं।
वृन्दावन बैठे मग जोवत बनवारी।
सीतल मंद सुगंध पवन बहै बंसीवट जमुना तट निपट निकट चारी।।
कुंजन की ललित कुसुमन की सेज्या रूचि बैठे नटनागर नवललन बिहारी।
श्री सूरदास मदनमोहन तेरो मग जोवत चलहु वेगि तूही प्राण प्यारी।।(सूरदास मदनमोहन की वाणी पृष्ठ ११-१२ )
वियोग-लीलाओं के वर्णन में भी कवि ने विप्रलम्भ के तीन भेदों :
अशर्फी लाल मिश्र
परिचय :
सूरदास मदनमोहन की गौड़ीय सम्प्रदाय के प्रमुख भक्त कवियों में गणना की जाती है। सूरदास मदनमोहन अकबर शासन काल में संडीला ,जिला हरदोई उत्तर प्रदेश में अमीन थे। इसी आधार पर इनका समय सोलहवीं शताब्दी अनुमानित किया जा सकता है। ये जाति के ब्राह्मण थे। इन्होंने किसी गौड़ीय विद्वान से दीक्षा ली।
सूरदास मदनमोहन का वास्तविक नाम सूरध्वज था। किन्तु कविता में इन्होंने अपने इस नाम का कभी प्रयोग नहीं किया। मदनमोहन के भक्त होने के कारण इन्होने सूरदास नाम के साथ मदनमोहन को भी अपने पदों में स्थान दिया। जिस प्रकार ब्रज भाषा के प्रमुख कवि सूर ( बल्लभ सम्प्रदायी ) ने अपने पदों में सूर और श्याम को एक रूप देने की चेष्टा की उसी प्रकार इन्होंने भी सूरदास और मदनमोहन में ऐक्य स्थापित करने का प्रयत्न किया है। दोनों कवियों की छाप में सूरदास शब्द समान रूप से मिलता है किन्तु एक श्याम की बाँह पकड़ कर चला है तो दूसरा मदनमोहन का आश्रय लेकर और यही दोनों के पदों को पहचानने की मात्र विधि है। उन पदों में जहाँ केवल 'सूरदास ' छपा है ~~ पदों के रचयिता का निश्चय कर सकना कठिन है। इस कारण सूरदास नाम के सभी पद महाकवि सूरदास के नाम पर संकलित कर दिए गए है। इसलिए सूरदास मदनमोहन के पदों की उपलब्धि कठिनाई का कारण हो रही है। आचार्य राम चंद्र शुक्ल ने हिंदी साहित्य के इतिहास में सूरदास मदनमोहन के नाम से जो पद दिया है वही पद नन्द दुलारे बाजपेयी द्वारा सम्पादित सूरसागर में भी मिल जाता है।
नवलकिशोर नवल नागरिया।
अपनी भुजा स्याम भुज ऊपर स्याम भुजा अपने उर धरिया।।
करत विनोद तरनि तनया तट ,स्यामा स्याम उमगि रसभरिया।
यों लपटाई रहे उर अंतर् मरकतमणि कंचन ज्यों जरिया।।
उपमा को घन दामिनी नाहीं कंदरप कोटि वारने करिया।
श्री सूरदास मदनमोहन बलि जोरी नन्दनन्दन वृषभानु दुलरिया।।(सूरसागर :सं ० नन्ददुलारे बाजपेयी :पृष्ठ ५०१ )
भक्तमाल में नाभादास जी ने सूरदास मदनमोहन के सम्बन्ध में जो छप्पय लिखा है उससे ज्ञात होता है की ये गान- विद्या और काव्य रचना में बहुत निपुण थे। इनके उपास्य राधा-कृष्ण थे। युगल किशोर की रहस्यमयी लीलाओं में पूर्ण प्रवेश के कारण इन्हें सुहृद सहचरि का अवतार मन गया है। भक्तमाल के छप्पय की टीका करते हुए प्रियादास जी ने सूरदास के जीवन की उस घटना का भी उल्लेख किया है जिसके कारण ये संडीला की अमीनी छोड़कर वृन्दावन चले गए थे।
रचनाएँ :
सूरदास मदनमोहन के लिखे हुए स्फुट पद ही आज उपलब्ध होते हैं ,जिनका संकलन सुह्रद वाणी के रूप में किया गया है। (प्रकाशन :बाबा कृष्णदास :राजस्थान प्रेस जयपुर :वि ० सं ० २००० )
माधुर्य भक्ति :
इनके उपास्य नवल किशोर राधा-कृष्ण हैं। यह अनुपम जोड़ी कुंजों में रस-लीला के द्वारा सखी और सखाओं को आनन्दित करती है। राधा और कृष्ण दोनों अनुपम सुन्दर हैं। जहाँ कृष्ण श्याम वर्ण हैं ,वहाँ राधा गौर वर्ण हैं ,किन्तु शारीरिक गठन में दोनों समान हैं। सिद्धान्तः कृष्ण ही राधा और राधा ही कृष्ण हैं। ये उसी प्रकार एक हैं जिस प्रकार धूप और छाँह ,घन और दामिनी तथा दृष्टि और नयन। फिर भी लीला के लिए उन्होंने दो विग्रह धारण किये हुए हैं~
माई री राधा वल्लभ वल्लभ राधा।
वे उनमै उनमै वे वसत।।
घाम छाँह घन दामिनी कसौटी लीक ज्यों कसत।
दृष्टि नैन स्वास वैन नैन सैन दोऊ लसत।
सूरदास मदनमोहन सनमुख ठाढ़े ही हसत। (सूरदास की वाणी ;पृष्ठ ९ )
सूरदास मदनमोहन के कृष्ण मायाधिपति हैं। उनकी माया समस्त जगत को अपने वश में करने वाली है,किन्तु मायाधिपति होने पर भी कृष्ण स्वयं प्रेम के वशीभूत हैं। इसी कारण जिस प्रकार इनकी माया समस्त जगत को नचाती है उसी प्रकार गोपयुवतियाँ इन्हें अपने प्रेम के बल पर नचाती हैं।
राधा सर्वांग सुंदरी हैं ~~ उनके रूप लावण्य की समता कमला , शची और स्वयं कामदेव की पत्नी रति भी नहीं कर सकतीं। रूप ही नहीं गुण और प्रेम की दृष्टि से भी राधा अनुपम हैं। इसीलिए श्रीकृष्ण उनके प्रेम का आस्वादन करने के लिए ब्रज में प्रकट हुए हैं। सामाजिक सम्बन्ध की दृष्टि से सूरदास मदनमोहन ने राधा को कृष्ण का स्वकीया माना है। राधा-विवाह की शंका निवारण करने के लिए इन्होंने भी सूरसागर के रचयिता के समान राधा-कृष्ण का विवाह रचाया है,जिसमें गोपियाँ आहूत अभ्यागत हैं तथा इनके विवाह में मंगलाचार गाती हैं। दोनों को वर-वधू के वेश में देख कर कवि की मानसिक साध पूरी हो जाती है। यथा ~~
गोपी सबै न्यौते आई, मुरली बरन्योति बुलाई।
सखियनि मिलि मंगल गाये ,बहु फुलनि मंडप छाये।।
छाये जो फूलनि कुंज मंडप पुलिन में वेदी रची।
बैठे जु स्यामा स्यामवर त्रयीलोक की शोभा सची।।
सूरदासहिं भयो आनन्द पूजी मन की साधा।
मदनमोहन लाल दूलहु दुलहिनि श्री राधा।।
स्वकीया के अतिरिक्त कुछ परकीयाभाव परक पद भी इनकी वाणी में मिल जाते हैं। किन्तु इन पदों का सम्बन्ध विशेष रूप से राधा के साथ न होकर सामान्य गोपयुवतियों के साथ है। इस प्रकार लोक लाज,कुलकानि छोड़कर कृष्ण के पास जाने का अवसर यमुना-तीर पर बजती हुई मुरली की ध्वनि को सुनकर उत्पन्न होता है। उस चर अचर सभी को स्तम्भित कर देने वाली ध्वनि को सुनकर यदि माता-पिता और पुत्र-पति आदि का विस्मरण हो जाता है तो कोई आश्चर्य की कोई बात नहीं।
चलो री मुरली सुनिए कान्ह बजाई जमुना तीर।
तजि लोक लाज कुल की कानि गुरुजन की भीर।।
जमुना जल थकित भयो वच्छा न पीयें छीर।
सुर विमान थकित भये थकित कोकिल कीर।।
देह की सुधि बिसरि गई बिसरयो तन को चीर।
मात तात बिसर गये बिसरे बालक वीर।।
मुरली धुनि मधुर बाजै कैसे के घरों धीर।
श्री सूरदास मदनमोहन जानत हौं यह पीर।।
राधा-कृष्ण की संयोग पक्ष की लीलायें परस्पर हास -परिहास अथवा छेद-छाड़ से आरम्भ होतीहै। इसी पारम्परिक है-परिहास का परिणाम रूप ठगौरी में दिखाई देता है। तदनन्तर गुप्त मिलन के लिए जिस तिस प्रकार से अवसर ढूंढ लिया जाता है। स्वयं श्रीकृष्ण भी गुप्त कुञ्ज-स्थलों पर अपनी प्रेयसी की प्रतीक्षा करते देखे जाते हैं।
वृन्दावन बैठे मग जोवत बनवारी।
सीतल मंद सुगंध पवन बहै बंसीवट जमुना तट निपट निकट चारी।।
कुंजन की ललित कुसुमन की सेज्या रूचि बैठे नटनागर नवललन बिहारी।
श्री सूरदास मदनमोहन तेरो मग जोवत चलहु वेगि तूही प्राण प्यारी।।(सूरदास मदनमोहन की वाणी पृष्ठ ११-१२ )
वियोग-लीलाओं के वर्णन में भी कवि ने विप्रलम्भ के तीन भेदों :
- पूर्व-राग
- मान
- प्रवास
का सुन्दर वर्णन किया है। कृष्ण की रूप-छवि तथा मुस्कान पर मुग्ध हो उनसे मिलने की लालसा रखने वाली गोप-युवती का यह वर्णन बहुत सुन्दर है :
हौं तो या मग निकसी अचानक कान्ह कुंवर ठाढ़े अपनी पौर।
दृष्टि सों दृष्टि मिली रोम रोम सीतल भई तन में उठत किधौं काम रौर।।
लाल पाग़ लटकि रही भौंह पर पान खात मुसकात अंग किये चंदनखौर।
श्री सूरदास मदनमोहन रंगीले लालविहारी मन में आवत किधौं मिलूँगी दौर।।
मान-मोचन के प्रसंग में कवि ने ऋतु के भावोद्दीपन पक्ष को प्रस्तुत करकर वर्णन को अत्यधिक मनोहारी बना दिया है~~
फूल्यो री सघन बन तामें कोकिला करत गान।
चल री वेग वृषभाननन्दिनी छाँड़ि कठिन मन मान।।
नवरितुराज आयो नेरे मिलि कीजै मधुपान।
श्री सूरदास मदनमोहन प्रिया को गाइये ,
रिझाइये , सुनाइये मीठी मधुर तान।। (सूरदास मदनमोहन की वाणी :पृष्ठ २३ )
भगवान की भक्ति इनकी दृष्टि में संसार के मायाजाल से छूटने का मात्र उपाय है। कृष्ण को छोड़कर विषय-सुखों की चाह करना मूर्खता है। इस तथ्य को सूरदास मदनमोहन ने विभिन्न दृष्टांतों द्वारा समझाया है ;
सोभा सब हानि करौ जगत को हसाऊँ।
कंचन उर हार छाँड़ि कांच को बनाऊँ।।
कामधेनु घर में त्यजि अजा को क्यों दुहाउँ।
कनक महल छाँड़ि क्यों परन कुटी छाऊँ।।
किन्तु भक्त की इतनी महिमा बतलाते हुए भी उसके साधनों की चर्चा इन्होंने कहीं नहीं की । कुछ पदों में राधा-कृष्ण की मधुर -लीला का जिस चित्रात्मक शैली से वर्णन किया गया है उससे सखी भाव की उपासना का संकेत मिलता है। निम्न पद में एक सखी अन्य सखी से निकुंज में होने वाली उपास्य- युगल की रति-लीला का आँखों देखा वर्णन कर रही है :
चलो किन देखत कुंज कुटी।
सुंदर स्याम मदनमोहन जँह मनमथ फ़ौज लुटी।।
नंदनंदन बृषभानुनन्दिनी नेकु न चाह छुटी।
सुरति सेज पे लरति अंगना मुक्तामाल टुटी।।
उरज तजी कंचुकी चुरकुट भई कटि तट ग्रन्थी हटी।
चतुर सिरोमनि सूर नन्दसुत लीनी अधर घुटी।।
साभार स्रोत :ग्रन्थ अनुक्रमणिका
फूल्यो री सघन बन तामें कोकिला करत गान।
चल री वेग वृषभाननन्दिनी छाँड़ि कठिन मन मान।।
नवरितुराज आयो नेरे मिलि कीजै मधुपान।
श्री सूरदास मदनमोहन प्रिया को गाइये ,
रिझाइये , सुनाइये मीठी मधुर तान।। (सूरदास मदनमोहन की वाणी :पृष्ठ २३ )
भगवान की भक्ति इनकी दृष्टि में संसार के मायाजाल से छूटने का मात्र उपाय है। कृष्ण को छोड़कर विषय-सुखों की चाह करना मूर्खता है। इस तथ्य को सूरदास मदनमोहन ने विभिन्न दृष्टांतों द्वारा समझाया है ;
सोभा सब हानि करौ जगत को हसाऊँ।
कंचन उर हार छाँड़ि कांच को बनाऊँ।।
कामधेनु घर में त्यजि अजा को क्यों दुहाउँ।
कनक महल छाँड़ि क्यों परन कुटी छाऊँ।।
किन्तु भक्त की इतनी महिमा बतलाते हुए भी उसके साधनों की चर्चा इन्होंने कहीं नहीं की । कुछ पदों में राधा-कृष्ण की मधुर -लीला का जिस चित्रात्मक शैली से वर्णन किया गया है उससे सखी भाव की उपासना का संकेत मिलता है। निम्न पद में एक सखी अन्य सखी से निकुंज में होने वाली उपास्य- युगल की रति-लीला का आँखों देखा वर्णन कर रही है :
चलो किन देखत कुंज कुटी।
सुंदर स्याम मदनमोहन जँह मनमथ फ़ौज लुटी।।
नंदनंदन बृषभानुनन्दिनी नेकु न चाह छुटी।
सुरति सेज पे लरति अंगना मुक्तामाल टुटी।।
उरज तजी कंचुकी चुरकुट भई कटि तट ग्रन्थी हटी।
चतुर सिरोमनि सूर नन्दसुत लीनी अधर घुटी।।
साभार स्रोत :ग्रन्थ अनुक्रमणिका
- सूरसागर :सं ० नन्ददुलारे बाजपेयी :
- सुहृद वाणी :प्रकाशन :बाबा कृष्णदास :राजस्थान प्रेस जयपुर :
- हिन्दी साहित्य का इतिहास:आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
- ब्रजभाषा के कृष्ण- काव्य में माधुर्य भक्ति :डॉ रूपनारायण :हिन्दी अनुसन्धान परिषद् दिल्ली विश्वविद्यालय दिल्ली के निमित्त :नवयुग प्रकाशन दिल्ली -७
- भक्तमाल: नाभादास
- सूरदास मदनमोहन की वाणी
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें