By : अशर्फी लाल मिश्र
अशर्फी लाल मिश्र
जीवन परिचय :
गदाधर भट्ट चैतन्य महाप्रभु के शिष्य थे। यह गौड़ीय संप्रदाय के प्रमुख भक्त कवियों में गिने जाते हैं। ऐसा प्रसिद्द है कि ये महाप्रभु चैतन्य को भागवत की कथा सुनाया करते थे। इस घटना उल्लेख आचार्य रामचंद्र शुक्ल (हिंदी साहित्य का इतिहास :पृष्ठ १ ८ २ ),आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी (हिंदी साहित्य :पृष्ठ २०० )और वियोगीहरि (ब्रजमाधुरीसार :पृष्ठ ७५ )` इन तीन विद्वान लेखकों ने किया है। इसी आधार पर इनका समय महाप्रभु चैतन्य के समय (वि ० सं ० १५४२ से वि ० सं ० १५९० ) के आसपास अनुमानित किया जा सकता है। चैतन्य महाप्रभु और षट्गोस्वामियों के संपर्क के कारण आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इनका कविता कल वि ० सं ० १५ ८० से १६०० के कुछ बाद तक अनुमानित किया है
भट्ट जी दक्षिणात्य ब्राह्मण थे। इंक जन्म स्थान आज तक अज्ञात है। ये संस्कृत के दिग्गज विद्वान थे इसी कारण इनके ब्रजभाषा के पदों में संस्कृत शब्दों की प्रचुरता है। आप का ब्रजभाषा पर पूर्ण अधिकार था। वृन्दावन आने के पूर्व ही आप ब्रजभाषा में पदों की रचना किया करते थे।
ऐसा प्रचलित है कि ये जीवगोस्वामी की प्रेरणा से वृन्दावन आये और महाप्रभु चैतन्य का शिष्यत्व ग्रहण किया। साधुओं से गदाधर भट्ट के द्वारा रचित निम्न 'पूर्वानुराग 'के पद को सुनकर जीवगोस्वामी मुग्ध हो गए :
सखी हौं स्याम रंग रंगी।
देखि बिकाय गई वह मूरति ,सूरत माहिं पगी।।
संग हुतो अपनी सपनो सो ,सोइ रही रस खोई।
जागेहु आगे दृष्टि परे सखि , नेकु न न्यारो होई।।
एक जु मेरी अंखियन में निसि द्यौस रह्यौ करि भौन।
गाइ चरावन जात सुन्यो सखि ,सोधौं कन्हैया कौन।।
कासौं कहौं कौन पतियावै , कौन करे बकवाद।
कैसे कहि जात गदाधर , गूंगे को गुरु स्वाद।।(गदाधर भट्ट की वाणी :पृष्ठ २५ )
इनके जीवन और स्वभाव के सम्बन्ध में नाभादास जी के एक छप्पय तथा उस पर की गई प्रियादास की टीका से कुछ प्रकाश पड़ता है। नाभादास का छप्पय :
सज्जन सुह्रद , सुशील , बचन आरज प्रतिपालय।
निर्मत्सर , निहकाम , कृपा करुणा को आलय।।
अनन्य भजन दृढ़ करनि धरयो बपु भक्तन काजै।
परम धरम को सेतु , विदित वृन्दावन गाजै।।
भागौत सुधा बरषे बदन काहू को नाहिन दुखद।
गुन निकर 'गदाधर भट्ट 'अति सबहिन कों लागै सुखद।।
रचनाये :
भट्ट जी की अभी तक रचनाओं में केवल स्फुट पद ही प्राप्त हैं। इनके स्फुट पद गदाधर की वाणी नामक पुस्तक में संकलित है इसके प्रकाशक बाबा कृष्ण दास हैं और हरिमोहन प्रिंटिंग प्रेस से मुद्रित है। इन स्फुट पदों का विषय विविध है। इनमें भक्त का दैन्य ,वात्सल्य ,बधाई (राधा और कृष्ण की ), यमुना -स्मृति और राधा -कृष्ण की विविध लीलाओं का वर्णन है।
माधुर्य भक्ति :
भट्ट जी के उपास्य नित्य वृन्दावन में वास करने वाले राधा-कृष्ण है। उनका रूप , स्वभाव ,शील ,माधुर्य आदि इस प्रकार का है कि चिन्तन लिए मन लुब्ध हो जाता है। उनके अनुसार कृष्ण व्रजराज कुल- तिलक ,राधारमण ,गोपीजनों को आनन्द देने वाले ,दुष्ट दानवों का दमन करने वाले ,भक्तों की सदा रक्षा करने वाले ,लावण्य -मूर्ति तथा ब्रह्म ,रूद्र आदि देवताओं द्वारा वन्दित हैं।:
जय महाराज ब्रजराज कुल तिलक ,
गोविन्द गोपीजनानन्द राधारमन।
बल दलन गर्व पर्वत विदारन।
ब्रज भक्त रच्छा दच्छ गिरिराज धरधीर। (गदाधर भट्ट की वाणी :पृष्ठ १२-१३ )
कृष्ण -प्रेयसी राधा सकल गुणों की साधिका ,तरुणी-मणि और नित्य नवीन किशोरी है। वे कृष्ण के रूप के लिए लालायित और कृष्ण-मुख-चन्द्र की चकोरी हैं। कृष्ण स्वयं उनकी रूप-माधुरी का पान करते हैं। गौरवर्णीय राधा का मन श्याम रंग में रंगा हुआ है और ६४ कलाओं में प्रवीण होते हुए भी भोली हैं।
जयति श्री राधिके सकल सुख साधिके ,
तरुनि मनि नित्य नवतन किशोरी।
कृष्ण तनु लीन मन रूप की चटकी ,
कृष्ण मुख हिम किरण की चकोरी।।
कृष्ण दृग भृंग विश्राम हित पद्मिनी ,
कृष्ण दृग मृगज बन्धन सुडोरी।
कृष्ण अनुराग मकरंद की मधुकरी ,
कृष्ण गुनगान रससिन्धु बोरी।।
एक अद्भुत अलौकिक रीति मैं लखी ,
मनसि स्यामल रंग अंग गोरी।
और आश्चर्य कहूँ मैं न देख्यो सुन्यो,
चतुर चौसठिकला तडवी भोरी।।(गदाधर भट्ट की वाणी :पृष्ठ २१ -२२ )
राधा-कृष्ण की लीलाओं का ध्यान एवं उनके लीला-रस का आस्वादन भट्ट जी की उपासना है। इस कारण उन्होंने अपने पदों में राधा-कृष्ण की लीलाओं का विविध रूप से गान किया है। उपास्य-युगल की मधुर लीलाओं में संयोग और वियोग दोनों प्रकार की लीलाओं का सुन्दर वर्णन है।
राधा का गोपियों के साथ मिलकर कृष्ण और बलराम के साथ होली खेलने का यह वर्णन बहुत मनोहारी है:
चलो री होरी खेलें नंद के लाल सों।
रंग रंगीलो छैल छबीलो मोहन मदन गोपाल सों।।
मृगमद अबीर अरगजा केसर फेंट जु भरी है गुलाल सों।
रुंज मुरज पखावज बाजें रंग रह्यो करताल सों।।
छिरकत भरत परस्पर सब मिल लाल हसत ब्रजबाल सों।
चन्द्रावलि बलिराम मुख मांड्यो लटकत गजगति चाल सों।।
राधा जू अचानक आय गहे हरि बेंदी लागी भाल सों।
विप्र गदाधर मुख सुख निरखत सुख पायो दीं दयाल सों।।(ग. भट्ट की वाणी :पृष्ठ ५३ )
इसी प्रकार राधा और कृष्ण के नृत्य का यह वर्णन भी भाव और भाषा दोनों दृष्टियों से बहुत सुन्दर है। शब्दों में नृत्य की सी ताल लक्षित होती है :
निर्तत राधा नन्दकिशोर।
ताल मृदंग सहचरी बजावत बिच बिच मोहन मुरली कलघोर।।
उरप तिरप पग धरत धरणि पर मंडल फिरत भुजन भुज जोर।
शोभा अमित विलोक गदाधर रीझ रीझ डारत तृण तीर।। (ग. भट्ट की वाणी :पृष्ठ ३५ )
राधा-कृष्ण की विभिन्न लीलाओं में प्रकृति भी पूर्ण सहायता करती है। भट्ट जी ने इस कारण अपने पदों में ऋतुओं का तथा वृन्दावन की शोभा का सुन्दर वर्णन किया है। यह प्रकृति वर्णन अधिकतर भावोद्दीपक रूप में ही आया है। किन्तु कहीं- कहीं प्राकृतिक पदार्थों को भक्तों की भाँति कृष्ण-पूजा करते हुए भी चित्रित किया गया है:
हरि की नवघन करत आरती।
गर्जनि मंद शंख ध्वनि सुनियत दादुर वेद भारती।।
पंचरंगपाट वाति सुर धनु की दामिनी डीप उज्यारती।
जल कन कुसुम जाल बरसावत बगगण चरण ढ़ारती।।
घंटा ताल झाँझि झालरि पिक चातक केकी क्वान।
ताते भयो गदाधर प्रभु के श्यामल अंग समान।।
कुछ अन्य पदों में प्रकृति को हरि के रूप में देखा गया है। वसंत का यह वर्णन इसी भाव से चित्रित प्रकृति का सुन्दर उदहारण है :
दिखोऊ प्यारी कुंजबिहारी मूरतिवंत बसंत।
मोरी तरुण तरलता तन में मनसिज रस बरसंत।।
अरुण अधर नवपल्लव शोभा विहसनि कुसुम विकास।
फूले विमल कमल से लोचन सूचित मन की हुलास।।
चल चूर्ण कुन्तल अलि माला मुरली कोकिल नाद।
देखियति गोपीजन बनराई मुदित मदन उन्माद।।
सहज सुवास स्वास मलयानिल लागत सदाति सुहायो।
श्री राधामाधवी गदाधर प्रभु परसत सुख पायो।।
साभार स्रोत :ग्रन्थ अनुक्रमणिका :
अशर्फी लाल मिश्र
जीवन परिचय :
गदाधर भट्ट चैतन्य महाप्रभु के शिष्य थे। यह गौड़ीय संप्रदाय के प्रमुख भक्त कवियों में गिने जाते हैं। ऐसा प्रसिद्द है कि ये महाप्रभु चैतन्य को भागवत की कथा सुनाया करते थे। इस घटना उल्लेख आचार्य रामचंद्र शुक्ल (हिंदी साहित्य का इतिहास :पृष्ठ १ ८ २ ),आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी (हिंदी साहित्य :पृष्ठ २०० )और वियोगीहरि (ब्रजमाधुरीसार :पृष्ठ ७५ )` इन तीन विद्वान लेखकों ने किया है। इसी आधार पर इनका समय महाप्रभु चैतन्य के समय (वि ० सं ० १५४२ से वि ० सं ० १५९० ) के आसपास अनुमानित किया जा सकता है। चैतन्य महाप्रभु और षट्गोस्वामियों के संपर्क के कारण आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इनका कविता कल वि ० सं ० १५ ८० से १६०० के कुछ बाद तक अनुमानित किया है
भट्ट जी दक्षिणात्य ब्राह्मण थे। इंक जन्म स्थान आज तक अज्ञात है। ये संस्कृत के दिग्गज विद्वान थे इसी कारण इनके ब्रजभाषा के पदों में संस्कृत शब्दों की प्रचुरता है। आप का ब्रजभाषा पर पूर्ण अधिकार था। वृन्दावन आने के पूर्व ही आप ब्रजभाषा में पदों की रचना किया करते थे।
ऐसा प्रचलित है कि ये जीवगोस्वामी की प्रेरणा से वृन्दावन आये और महाप्रभु चैतन्य का शिष्यत्व ग्रहण किया। साधुओं से गदाधर भट्ट के द्वारा रचित निम्न 'पूर्वानुराग 'के पद को सुनकर जीवगोस्वामी मुग्ध हो गए :
सखी हौं स्याम रंग रंगी।
देखि बिकाय गई वह मूरति ,सूरत माहिं पगी।।
संग हुतो अपनी सपनो सो ,सोइ रही रस खोई।
जागेहु आगे दृष्टि परे सखि , नेकु न न्यारो होई।।
एक जु मेरी अंखियन में निसि द्यौस रह्यौ करि भौन।
गाइ चरावन जात सुन्यो सखि ,सोधौं कन्हैया कौन।।
कासौं कहौं कौन पतियावै , कौन करे बकवाद।
कैसे कहि जात गदाधर , गूंगे को गुरु स्वाद।।(गदाधर भट्ट की वाणी :पृष्ठ २५ )
इनके जीवन और स्वभाव के सम्बन्ध में नाभादास जी के एक छप्पय तथा उस पर की गई प्रियादास की टीका से कुछ प्रकाश पड़ता है। नाभादास का छप्पय :
सज्जन सुह्रद , सुशील , बचन आरज प्रतिपालय।
निर्मत्सर , निहकाम , कृपा करुणा को आलय।।
अनन्य भजन दृढ़ करनि धरयो बपु भक्तन काजै।
परम धरम को सेतु , विदित वृन्दावन गाजै।।
भागौत सुधा बरषे बदन काहू को नाहिन दुखद।
गुन निकर 'गदाधर भट्ट 'अति सबहिन कों लागै सुखद।।
रचनाये :
भट्ट जी की अभी तक रचनाओं में केवल स्फुट पद ही प्राप्त हैं। इनके स्फुट पद गदाधर की वाणी नामक पुस्तक में संकलित है इसके प्रकाशक बाबा कृष्ण दास हैं और हरिमोहन प्रिंटिंग प्रेस से मुद्रित है। इन स्फुट पदों का विषय विविध है। इनमें भक्त का दैन्य ,वात्सल्य ,बधाई (राधा और कृष्ण की ), यमुना -स्मृति और राधा -कृष्ण की विविध लीलाओं का वर्णन है।
माधुर्य भक्ति :
भट्ट जी के उपास्य नित्य वृन्दावन में वास करने वाले राधा-कृष्ण है। उनका रूप , स्वभाव ,शील ,माधुर्य आदि इस प्रकार का है कि चिन्तन लिए मन लुब्ध हो जाता है। उनके अनुसार कृष्ण व्रजराज कुल- तिलक ,राधारमण ,गोपीजनों को आनन्द देने वाले ,दुष्ट दानवों का दमन करने वाले ,भक्तों की सदा रक्षा करने वाले ,लावण्य -मूर्ति तथा ब्रह्म ,रूद्र आदि देवताओं द्वारा वन्दित हैं।:
जय महाराज ब्रजराज कुल तिलक ,
गोविन्द गोपीजनानन्द राधारमन।
बल दलन गर्व पर्वत विदारन।
ब्रज भक्त रच्छा दच्छ गिरिराज धरधीर। (गदाधर भट्ट की वाणी :पृष्ठ १२-१३ )
कृष्ण -प्रेयसी राधा सकल गुणों की साधिका ,तरुणी-मणि और नित्य नवीन किशोरी है। वे कृष्ण के रूप के लिए लालायित और कृष्ण-मुख-चन्द्र की चकोरी हैं। कृष्ण स्वयं उनकी रूप-माधुरी का पान करते हैं। गौरवर्णीय राधा का मन श्याम रंग में रंगा हुआ है और ६४ कलाओं में प्रवीण होते हुए भी भोली हैं।
जयति श्री राधिके सकल सुख साधिके ,
तरुनि मनि नित्य नवतन किशोरी।
कृष्ण तनु लीन मन रूप की चटकी ,
कृष्ण मुख हिम किरण की चकोरी।।
कृष्ण दृग भृंग विश्राम हित पद्मिनी ,
कृष्ण दृग मृगज बन्धन सुडोरी।
कृष्ण अनुराग मकरंद की मधुकरी ,
कृष्ण गुनगान रससिन्धु बोरी।।
एक अद्भुत अलौकिक रीति मैं लखी ,
मनसि स्यामल रंग अंग गोरी।
और आश्चर्य कहूँ मैं न देख्यो सुन्यो,
चतुर चौसठिकला तडवी भोरी।।(गदाधर भट्ट की वाणी :पृष्ठ २१ -२२ )
राधा-कृष्ण की लीलाओं का ध्यान एवं उनके लीला-रस का आस्वादन भट्ट जी की उपासना है। इस कारण उन्होंने अपने पदों में राधा-कृष्ण की लीलाओं का विविध रूप से गान किया है। उपास्य-युगल की मधुर लीलाओं में संयोग और वियोग दोनों प्रकार की लीलाओं का सुन्दर वर्णन है।
राधा का गोपियों के साथ मिलकर कृष्ण और बलराम के साथ होली खेलने का यह वर्णन बहुत मनोहारी है:
चलो री होरी खेलें नंद के लाल सों।
रंग रंगीलो छैल छबीलो मोहन मदन गोपाल सों।।
मृगमद अबीर अरगजा केसर फेंट जु भरी है गुलाल सों।
रुंज मुरज पखावज बाजें रंग रह्यो करताल सों।।
छिरकत भरत परस्पर सब मिल लाल हसत ब्रजबाल सों।
चन्द्रावलि बलिराम मुख मांड्यो लटकत गजगति चाल सों।।
राधा जू अचानक आय गहे हरि बेंदी लागी भाल सों।
विप्र गदाधर मुख सुख निरखत सुख पायो दीं दयाल सों।।(ग. भट्ट की वाणी :पृष्ठ ५३ )
इसी प्रकार राधा और कृष्ण के नृत्य का यह वर्णन भी भाव और भाषा दोनों दृष्टियों से बहुत सुन्दर है। शब्दों में नृत्य की सी ताल लक्षित होती है :
निर्तत राधा नन्दकिशोर।
ताल मृदंग सहचरी बजावत बिच बिच मोहन मुरली कलघोर।।
उरप तिरप पग धरत धरणि पर मंडल फिरत भुजन भुज जोर।
शोभा अमित विलोक गदाधर रीझ रीझ डारत तृण तीर।। (ग. भट्ट की वाणी :पृष्ठ ३५ )
राधा-कृष्ण की विभिन्न लीलाओं में प्रकृति भी पूर्ण सहायता करती है। भट्ट जी ने इस कारण अपने पदों में ऋतुओं का तथा वृन्दावन की शोभा का सुन्दर वर्णन किया है। यह प्रकृति वर्णन अधिकतर भावोद्दीपक रूप में ही आया है। किन्तु कहीं- कहीं प्राकृतिक पदार्थों को भक्तों की भाँति कृष्ण-पूजा करते हुए भी चित्रित किया गया है:
हरि की नवघन करत आरती।
गर्जनि मंद शंख ध्वनि सुनियत दादुर वेद भारती।।
पंचरंगपाट वाति सुर धनु की दामिनी डीप उज्यारती।
जल कन कुसुम जाल बरसावत बगगण चरण ढ़ारती।।
घंटा ताल झाँझि झालरि पिक चातक केकी क्वान।
ताते भयो गदाधर प्रभु के श्यामल अंग समान।।
कुछ अन्य पदों में प्रकृति को हरि के रूप में देखा गया है। वसंत का यह वर्णन इसी भाव से चित्रित प्रकृति का सुन्दर उदहारण है :
दिखोऊ प्यारी कुंजबिहारी मूरतिवंत बसंत।
मोरी तरुण तरलता तन में मनसिज रस बरसंत।।
अरुण अधर नवपल्लव शोभा विहसनि कुसुम विकास।
फूले विमल कमल से लोचन सूचित मन की हुलास।।
चल चूर्ण कुन्तल अलि माला मुरली कोकिल नाद।
देखियति गोपीजन बनराई मुदित मदन उन्माद।।
सहज सुवास स्वास मलयानिल लागत सदाति सुहायो।
श्री राधामाधवी गदाधर प्रभु परसत सुख पायो।।
साभार स्रोत :ग्रन्थ अनुक्रमणिका :
- हिंदी साहित्य का इतिहास: आचार्य रामचंद्र शुक्ल
- हिन्दी साहित्य:आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी
- ब्रजभाषा के कृष्ण- काव्य में माधुर्य भक्ति :डॉ रूपनारायण :हिन्दी अनुसन्धान परिषद् दिल्ली विश्वविद्यालय दिल्ली के निमित्त :नवयुग प्रकाशन दिल्ली -७
- ब्रजमाधुरीसार : वियोगीहरि
- भक्तमाल:नाभादास
- गदाधर की वाणी :प्रकाशक बाबा कृष्ण दास
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