By : अशर्फी लाल मिश्र
अशर्फी लाल मिश्र
जीवन परिचय :
बल्लभ सम्प्रदाय की कवियों में गंगाबाई का स्थान प्रमुख है। इनका का जन्म वि ० सं ० १६२ ८ में मथुरा के पास महावन नामक स्थान में हुआ था। गंगाबाई जाति से क्षत्राणी थीं। दो सौ बावन वैष्णवों की वार्ता में भी गंगाबाई क्षत्राणी का उल्लेख किया गया है। गंगाबाई गोस्वामी विट्ठलनाथ की शिष्या थीं। अतः अपने कीर्तन-पदों में इन्होंने अपने नाम के स्थान पर श्री विठ्ठल गिरिधरन शब्द को प्रयुक्त किया है किया है। 'दो सौ बावन वैष्णवों की वार्ता ' में दी गई इनकी वार्ता से पता चलता है की वि ० सं ० १७३६ में श्रीनाथ जी ने अपनी लीला में सदेह अंगीकार कर लिया।
रचनाएँ :
गंगाबाई के कुछ पद 'श्री विट्ठल गिरधरन लाल ' नाम पुष्टि-मार्ग के वर्षोत्सव ग्रंथों में संकलित हैं।इनमें जन्म से लेकर कृष्ण की विभिन्न लीलाओं का वर्णन किया गया है। महिला होने कारण इनका मधुर-लीलाओं का वर्णन अत्यधिक मर्यादित है।
माधुर्य भक्ति :
गंगाबाई के आराध्य कृष्ण हैं। कृष्ण के स्वरुप की विशेष चर्चा इनके पदों में नहीं मिलती। केवल इतना पता चलता है कि श्रीकृष्ण सुन्दर हैं और रसिक हैं। गोपियाँ इनकी रूप माधुरी से मुग्ध हो उनकी प्राप्ति के लिए व्रत-उपवास आदि का आचरण करती हैं। गोपियों के पूर्वानुराग के वर्णन में भी कृष्ण की सुंदरता का वर्णन करने की अपेक्षा उसके प्रभाव की ओर विशेष ध्यान दिया गया है।
सखी अब मो पै रह्यो न जाय।
चलि री मिल उन ही पैं जैये जहाँ चरावत गाय।।
अंग अंग की सब सुधि भूली देखत नंद किशोर।
मेरो मन हर लियो तब ही को जब चितयें यह ओर।.(पुष्टिमार्गीय पद-संग्रह :प्रथम भाग :पृष्ठ ४७४ )
गोपियों के प्रेम से प्रभावित हो श्रीकृष्ण उनकी मनो-पूर्ति का वचन दे देते है। इनका पहला रूप हमें दानलीला के पदों में लक्षित होता है। गोपियों से जब कृष्ण दान की याचना करते है तो वः तुरन्त सभी कुछ देने के लिए प्रस्तुत हो जाती हैं क्योंकि वे कृष्ण-चरणों में पहले ही आत्म-समर्पण कर चुकी हैं। अतः किसी प्रकार की अमर्यादित प्रसंग यहां लक्षित नहीं होता।
ग्वालिनि दान हमारो दीजै।
अति मनमुदित होय ब्रजसुंदरि खत लाल हसि लीजै।।
दीजे मन मेरो अब प्यारे निरखि निरखि मुख जीजे।
अति रस गलित होत वः भामिनी मनमाने सो कीजे।।
चलि न सकत अति ठठकि रहत पग रूप रासि अब पीजे।
श्री विठ्ठलगिरिधरन लाल सों नवल नवल रस भीजे ।।(पुष्टिमार्गीय पद-संग्रह :प्रथम भाग :पृष्ठ १६४ )
किन्तु कुछ पदों में हास -परिहास की झलक अवश्य मिल जाती है ~~
जीती हो चन्द्रावली नारि।
जीती हैं व्रजमंगलराधे जीती सुंदरि गोपकुमारि।।
हारे हैं ब्रजराज लड़ैते रहे हैं सबके वदन निहारी।
पकरो पाय कह्यो करो मेरो कह रही जिय माँझ विचारी।
पहेरो हार इनैं पेहेरायो करो कुँवर आपन मन भाये।
श्री विठ्ठलगिरिधर सबही की गहि गहि भुजा हिये सों लाये।।(पुष्टिमार्गीय पद-संग्रह :प्रथम भाग :पृष्ठ १८० )
कृष्ण की मधुर लीलाओं में केवल संयोग पक्ष की रास,झूलन ,होरी,द्युत-क्रीड़ा आदि लीलाओं का वर्णन गंगाबाई ने अपने पदों किया है। सुरत के प्रसंग को रूपात्मक शैली में इस प्रकार प्रस्तुत किया है कि वह स्पष्ट रूप से रति का वर्णन नहीं प्रतीत होता :
झूलो तो सुरत हिंडोरे झुलाऊँ।
मरुवे मयार करौं हित चित के तन मन खंभ बनाऊँ।।
सुधि पटली बुद्धि डाँडी बेलन नेह बिछौना बिछाऊँ।
अति औसेर `धरोँ रूचि कलशा प्रीति ध्वजा फेहराऊँ।।
गरजन कोहोक किलक मिलवे की की प्रेम नीर बरषाऊँ।
श्री विठ्ठलगिरिधरन झुलाऊँ जो इकेले करि पाऊँ।।(पुष्टिमार्गीय पद-संग्रह :प्रथम भाग :पृष्ठ ४ ९ ८ )
साधारणतया उनके में सहजता और सरलता ही दृष्टिगत है। होली का यह वर्णन इसी सरलता और स्वाभाविकता के कारण सुन्दर लगता है। ऐसे अवसर पर गोप-युवतियों का कृष्ण साथ मनमानी करना सर्वथा अवसर के अनुकूल है~~
खेलें चाँचर नर नारि माई होरी रंग सुहावनी।
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एक जु युवती धाय गहि लाई भर पिय को अंकवारी।।
एकन लई झटककर मुरली एकन लिए हार उतारी।
एक मुख माँड आँज दोऊ नयना एक हसत दे तारी।।
एक आलिंगन देत लेत एक रही जो वदन निहार।
एक अधर रस पान करत एक सर्वस डारत वार।।
एक मगन रस भुज प्रीतम की आप उरधारी।
धन्य ब्रजयुवती भाग्य पूरन ये यह रस बिलसनहारी।।(पुष्टिमार्गीय पद-संग्रह :प्रथम भाग :पृष्ठ १४९ )
साभार स्रोत ;ग्रन्थ अनुक्रमणिका :
अशर्फी लाल मिश्र
जीवन परिचय :
बल्लभ सम्प्रदाय की कवियों में गंगाबाई का स्थान प्रमुख है। इनका का जन्म वि ० सं ० १६२ ८ में मथुरा के पास महावन नामक स्थान में हुआ था। गंगाबाई जाति से क्षत्राणी थीं। दो सौ बावन वैष्णवों की वार्ता में भी गंगाबाई क्षत्राणी का उल्लेख किया गया है। गंगाबाई गोस्वामी विट्ठलनाथ की शिष्या थीं। अतः अपने कीर्तन-पदों में इन्होंने अपने नाम के स्थान पर श्री विठ्ठल गिरिधरन शब्द को प्रयुक्त किया है किया है। 'दो सौ बावन वैष्णवों की वार्ता ' में दी गई इनकी वार्ता से पता चलता है की वि ० सं ० १७३६ में श्रीनाथ जी ने अपनी लीला में सदेह अंगीकार कर लिया।
रचनाएँ :
गंगाबाई के कुछ पद 'श्री विट्ठल गिरधरन लाल ' नाम पुष्टि-मार्ग के वर्षोत्सव ग्रंथों में संकलित हैं।इनमें जन्म से लेकर कृष्ण की विभिन्न लीलाओं का वर्णन किया गया है। महिला होने कारण इनका मधुर-लीलाओं का वर्णन अत्यधिक मर्यादित है।
माधुर्य भक्ति :
गंगाबाई के आराध्य कृष्ण हैं। कृष्ण के स्वरुप की विशेष चर्चा इनके पदों में नहीं मिलती। केवल इतना पता चलता है कि श्रीकृष्ण सुन्दर हैं और रसिक हैं। गोपियाँ इनकी रूप माधुरी से मुग्ध हो उनकी प्राप्ति के लिए व्रत-उपवास आदि का आचरण करती हैं। गोपियों के पूर्वानुराग के वर्णन में भी कृष्ण की सुंदरता का वर्णन करने की अपेक्षा उसके प्रभाव की ओर विशेष ध्यान दिया गया है।
सखी अब मो पै रह्यो न जाय।
चलि री मिल उन ही पैं जैये जहाँ चरावत गाय।।
अंग अंग की सब सुधि भूली देखत नंद किशोर।
मेरो मन हर लियो तब ही को जब चितयें यह ओर।.(पुष्टिमार्गीय पद-संग्रह :प्रथम भाग :पृष्ठ ४७४ )
गोपियों के प्रेम से प्रभावित हो श्रीकृष्ण उनकी मनो-पूर्ति का वचन दे देते है। इनका पहला रूप हमें दानलीला के पदों में लक्षित होता है। गोपियों से जब कृष्ण दान की याचना करते है तो वः तुरन्त सभी कुछ देने के लिए प्रस्तुत हो जाती हैं क्योंकि वे कृष्ण-चरणों में पहले ही आत्म-समर्पण कर चुकी हैं। अतः किसी प्रकार की अमर्यादित प्रसंग यहां लक्षित नहीं होता।
ग्वालिनि दान हमारो दीजै।
अति मनमुदित होय ब्रजसुंदरि खत लाल हसि लीजै।।
दीजे मन मेरो अब प्यारे निरखि निरखि मुख जीजे।
अति रस गलित होत वः भामिनी मनमाने सो कीजे।।
चलि न सकत अति ठठकि रहत पग रूप रासि अब पीजे।
श्री विठ्ठलगिरिधरन लाल सों नवल नवल रस भीजे ।।(पुष्टिमार्गीय पद-संग्रह :प्रथम भाग :पृष्ठ १६४ )
किन्तु कुछ पदों में हास -परिहास की झलक अवश्य मिल जाती है ~~
जीती हो चन्द्रावली नारि।
जीती हैं व्रजमंगलराधे जीती सुंदरि गोपकुमारि।।
हारे हैं ब्रजराज लड़ैते रहे हैं सबके वदन निहारी।
पकरो पाय कह्यो करो मेरो कह रही जिय माँझ विचारी।
पहेरो हार इनैं पेहेरायो करो कुँवर आपन मन भाये।
श्री विठ्ठलगिरिधर सबही की गहि गहि भुजा हिये सों लाये।।(पुष्टिमार्गीय पद-संग्रह :प्रथम भाग :पृष्ठ १८० )
कृष्ण की मधुर लीलाओं में केवल संयोग पक्ष की रास,झूलन ,होरी,द्युत-क्रीड़ा आदि लीलाओं का वर्णन गंगाबाई ने अपने पदों किया है। सुरत के प्रसंग को रूपात्मक शैली में इस प्रकार प्रस्तुत किया है कि वह स्पष्ट रूप से रति का वर्णन नहीं प्रतीत होता :
झूलो तो सुरत हिंडोरे झुलाऊँ।
मरुवे मयार करौं हित चित के तन मन खंभ बनाऊँ।।
सुधि पटली बुद्धि डाँडी बेलन नेह बिछौना बिछाऊँ।
अति औसेर `धरोँ रूचि कलशा प्रीति ध्वजा फेहराऊँ।।
गरजन कोहोक किलक मिलवे की की प्रेम नीर बरषाऊँ।
श्री विठ्ठलगिरिधरन झुलाऊँ जो इकेले करि पाऊँ।।(पुष्टिमार्गीय पद-संग्रह :प्रथम भाग :पृष्ठ ४ ९ ८ )
साधारणतया उनके में सहजता और सरलता ही दृष्टिगत है। होली का यह वर्णन इसी सरलता और स्वाभाविकता के कारण सुन्दर लगता है। ऐसे अवसर पर गोप-युवतियों का कृष्ण साथ मनमानी करना सर्वथा अवसर के अनुकूल है~~
खेलें चाँचर नर नारि माई होरी रंग सुहावनी।
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एक जु युवती धाय गहि लाई भर पिय को अंकवारी।।
एकन लई झटककर मुरली एकन लिए हार उतारी।
एक मुख माँड आँज दोऊ नयना एक हसत दे तारी।।
एक आलिंगन देत लेत एक रही जो वदन निहार।
एक अधर रस पान करत एक सर्वस डारत वार।।
एक मगन रस भुज प्रीतम की आप उरधारी।
धन्य ब्रजयुवती भाग्य पूरन ये यह रस बिलसनहारी।।(पुष्टिमार्गीय पद-संग्रह :प्रथम भाग :पृष्ठ १४९ )
साभार स्रोत ;ग्रन्थ अनुक्रमणिका :
- दो सौ बावन वैष्णवों की वार्ता
- पुष्टिमार्गीय पद-संग्रह
- ब्रजभाषा के कृष्ण- काव्य में माधुर्य भक्ति :डॉ रूपनारायण :हिन्दी अनुसन्धान परिषद् दिल्ली विश्वविद्यालय दिल्ली के निमित्त :नवयुग प्रकाशन दिल्ली -७
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