By : अशर्फी लाल मिश्र
अशर्फी लाल मिश्र
जीवन परिचय :
राधावल्लभ सम्प्रदाय में ध्रुवदास का भक्त कवियों में प्रमुख स्थान है। इस सम्प्रदाय भक्ति-सिद्धान्तों का जैसा सर्वांगपूर्ण विवेचन इनकी वाणी में उपलब्ध होता है वैसा किसी अन्य भक्तों की वाणी में नहीं। सम्प्रदाय में विशेष महत्वपूर्ण स्थान होते हुए भी आप के जन्म-संवत आदि का कुछ भी निश्चित पता नहीं है। आपने अपने रसानन्द लीला नामक ग्रन्थ में उसका रचना-काल इस प्रकार दिया है :
संवत सोलह सै पंचासा ,बरनत हित ध्रुव जुगल बिलासा।
इस ग्रन्थ को यदि आप की प्रारम्भिक रचना माना जाय तो उससे कम से कम बीस वर्ष पूर्व की जन्म तिथि माननी होगी । इस आधार पर आप का जन्म संवत १६३० के आसपास सुनिश्चित होता है। इसीप्रकार ध्रुवदास जी के रहस्यमंजरी लीला नामक ग्रन्थ में उपलब्ध निम्न दोहे के आधार पर इनके मृत्यु संवत १७०० के आसपास का अनुमान लगाया जा सकता है :
सत्रह सै द्वै ऊन अरु अगहन पछि उजियार।
दोहा चौपाई कहें ध्रुव इकसत ऊपर चार।।
ध्रुवदास जी का जन्म देवबन्द ग्राम के कायस्थ कुल में हुआ था।आप के वंश में पहले से ही वैष्णव-पद्धति की अनन्य उपासना चलती थी। ध्रुवदास जी के वंशजों के अनुसार इनके पितामह श्री हितहरिवंश जी के शिष्य थे। इनके पिता श्यामदास भी परमभक्त और समाज सेवी पुरुष थे। ध्रुवदास की रचनाओं से पता चलता है कि पिता समान इन्होंने भी श्री गोपीनाथ जी से ही युगल-मन्त्र की दीक्षा ली :
श्री गोपीनाथ पद उर धरैं महागोप्य रस धार।
बिनु विलम आवे हिये अद्भुत जुगल विहार।।
ध्रुवदास जी जन्मजात संस्कारों के कारण शैशव में ही विरक्त हो गए और अल्पायु में ही वृन्दावन चले आये। ये स्वभाव से अत्यंत विनम्र ,विनीत,साधुसेवी,सहनशील और गंभीर प्रकृति के महात्मा थे।
रचनाएँ :
आप की सभी रचनाएँ मुक्तक हैं। अपने ग्रंथों का नाम लीला रखा। इनके ग्रंथों या लीलाओं की संख्या बयालीस है। इसके अतिरिक्त आप के १०३ फुटकर पद और मिलते हैं ।जिन्हें पदयावली के नाम से बयालीस लीला में स्थान दिया गया है।
भक्ति माधुर्य :
वृन्दावन घन-कुञ्ज में प्रेम -विलास करने वाले अपने उपास्य-युगल श्यामा-श्याम का परिचय ध्रुवदास जी ने निम्न कवित्त में दिया है :
प्रीतम किशोरी गोरी रसिक रंगीली जोरी ,
प्रेम के रंग ही बोरी शोभा कहि जाति है।
एक प्राण एक बेस एक ही सुभाव चाव ,
एक बात दुहुनि के मन को सुहाति है।
एक कुंज एक सेज एक पट ओढ़े बैठे ,
एक एक बीरी दोउ खंडि खंडि खात हैं।
एक रस एक प्राण एक दृष्टि हित ध्रुव
हेरि हेरि बढ़े चौंप क्यों हू न अघात हैं।।(बयालीस लीला :द्वितीय श्रंखला ;पृष्ठ १०३ )
राधा-कृष्ण के पारस्परिक प्रेम का वर्णन निम्न कवित्त में दृष्टव्य है :
जैसी अलबेली बाल तैसे अलबेले लाल ,
दुहुँनि में उलझी सहज शोभा नेह की।
चाहनि के अम्बु दे- दे सींचत हैं छिन -छिन ,
आलबाल भई -सेज छाया कुञ्ज गेह की।।
अनुदिन हरी होति पानिष वदन जोति ,
ज्यों ज्यों ही बौछार ध्रुव लागे रूप मेह की।
नैननि की वारि किये हरैं सखी मन दियें ,
चित्र सी ह्वै रही सब भूली सुधि देह की।।(बयालीस लीला :प्रथम श्रंखला}
ध्रुवदास जी ने अपनी आराध्या राधा के स्वाभाव तथा सौन्दर्य का वर्णन कई कवित्त और सवैयों में किआ है। निम्न कवित्त उनकी काव्य-प्रतिभा एवं कल्पना शक्ति का पूर्ण परिचायक है।
हँसनि में फूलन की चाहन में अमृत की ,
नख सिख रूप ही की बरषा सी होति है।
केशनि की चन्द्रिका सुहाग अनुराग घटा ,
दामिनी की लसनि दशनि ही की दोति है।।
हित ध्रुव पानिप तरंग रस छलकत ,
ताको मानो सहज सिंगार सीवाँ पोति है।
अति अलबेलि प्रिये भूषित भूषन बिनु ,
छिन छिन औरे और बदन की जोति है।।(बयालीस लीला :भजन श्रृंगार सत लीला )
राधा-कृष्ण की संयोग परक लीलाओं में होरी,झूलन, मंगला ,द्युत-क्रीड़ा ,जल-विहार,रास आदि सभी लीलाओं का वर्णन ध्रुवदास ने किया है। होरी के निम्न वर्णन को पढ़कर होली खेलते हुए नर-नारियों का वास्तविक चित्र पाठक के सम्मुख आ जाता है।
लाल लड़ैती जू खेलहीं आज होरी का त्यौहार हो।
फूली संग सखी सबै निरखत प्रेम विहार हो।।
प्यारी पहिरैं सारी केशरी दिए बेंदी लाल गुलाल हो।
मोहे मोहन मोहनी चितवनि नैन विशाल हो।।
अद्भुत उड़न गुलाल की पिचकारी धार निहारि हो।
मानों घन अनुराग के वरषत आनंद वारि हो।।
लटकनि ललित सुहावनी पद मटकनि करनि सुदेश हो।
झटकनि उर हारावली ध्रुव कहि न सकत छवि लेश हो।। (पद्यावली ;पृष्ठ २० )
राधा-कृष्ण का यह विहार केवल प्रेम का विहार है। प्रेम के प्रकाशनार्थ प्रेम-स्वरुप राधा-कृष्ण परस्पर क्रीड़ा करते हैं। प्रेम-सर्वस्वा सखियाँ ही इन प्रेम-लीलाओं का आस्वादन करती हैं। तथा इन लीलाओं की स्थली वृन्दावन-धाम भी प्रेममय है। तात्पर्य यह है कि नित्य विहार में साधन एवं साध्य सभी कुछ प्रेम है।
प्यार ही की कुंज और प्यार ही की सेज रचि ,
प्यार ही सों प्यारे लाल प्यारी बात करहीं।
प्यार ही की चितवनि मुसिकनि प्यार ही की ,
प्यार ही सों प्यारी जू को प्यारो अंक भरहीं।।
प्यार सों लटकि रहे ,प्यार ही सों मुख चहै।
प्यार ही सों प्यारो प्रिया अंक भुज धरहीं।
हित ध्रुव प्यार भरी प्यारी सखी देखैं खरी ,
प्यारे प्यार रह्यो छाइ प्यार रस ढ़रहीं।।
ध्रुवदास अपने मन को शिक्षा देते हुए कहते हैं ~
रे मन अरु सब छाँड़ि के ,जो अटके इकठौर।
वृन्दावन घन कुंज में ,जहाँ रसिक सिरमौर।।
सखी भाव से उपास्य-युगल की सेवा करना और सेवा करते हुए उनके विहार का दर्शन कर कृतार्थ होना ही ध्रुवदास की दृष्टि में उपासक का धर्म है।
साभार स्रोत :ग्रन्थानुक्रमणिका
अशर्फी लाल मिश्र
जीवन परिचय :
राधावल्लभ सम्प्रदाय में ध्रुवदास का भक्त कवियों में प्रमुख स्थान है। इस सम्प्रदाय भक्ति-सिद्धान्तों का जैसा सर्वांगपूर्ण विवेचन इनकी वाणी में उपलब्ध होता है वैसा किसी अन्य भक्तों की वाणी में नहीं। सम्प्रदाय में विशेष महत्वपूर्ण स्थान होते हुए भी आप के जन्म-संवत आदि का कुछ भी निश्चित पता नहीं है। आपने अपने रसानन्द लीला नामक ग्रन्थ में उसका रचना-काल इस प्रकार दिया है :
संवत सोलह सै पंचासा ,बरनत हित ध्रुव जुगल बिलासा।
इस ग्रन्थ को यदि आप की प्रारम्भिक रचना माना जाय तो उससे कम से कम बीस वर्ष पूर्व की जन्म तिथि माननी होगी । इस आधार पर आप का जन्म संवत १६३० के आसपास सुनिश्चित होता है। इसीप्रकार ध्रुवदास जी के रहस्यमंजरी लीला नामक ग्रन्थ में उपलब्ध निम्न दोहे के आधार पर इनके मृत्यु संवत १७०० के आसपास का अनुमान लगाया जा सकता है :
सत्रह सै द्वै ऊन अरु अगहन पछि उजियार।
दोहा चौपाई कहें ध्रुव इकसत ऊपर चार।।
ध्रुवदास जी का जन्म देवबन्द ग्राम के कायस्थ कुल में हुआ था।आप के वंश में पहले से ही वैष्णव-पद्धति की अनन्य उपासना चलती थी। ध्रुवदास जी के वंशजों के अनुसार इनके पितामह श्री हितहरिवंश जी के शिष्य थे। इनके पिता श्यामदास भी परमभक्त और समाज सेवी पुरुष थे। ध्रुवदास की रचनाओं से पता चलता है कि पिता समान इन्होंने भी श्री गोपीनाथ जी से ही युगल-मन्त्र की दीक्षा ली :
श्री गोपीनाथ पद उर धरैं महागोप्य रस धार।
बिनु विलम आवे हिये अद्भुत जुगल विहार।।
ध्रुवदास जी जन्मजात संस्कारों के कारण शैशव में ही विरक्त हो गए और अल्पायु में ही वृन्दावन चले आये। ये स्वभाव से अत्यंत विनम्र ,विनीत,साधुसेवी,सहनशील और गंभीर प्रकृति के महात्मा थे।
रचनाएँ :
आप की सभी रचनाएँ मुक्तक हैं। अपने ग्रंथों का नाम लीला रखा। इनके ग्रंथों या लीलाओं की संख्या बयालीस है। इसके अतिरिक्त आप के १०३ फुटकर पद और मिलते हैं ।जिन्हें पदयावली के नाम से बयालीस लीला में स्थान दिया गया है।
भक्ति माधुर्य :
वृन्दावन घन-कुञ्ज में प्रेम -विलास करने वाले अपने उपास्य-युगल श्यामा-श्याम का परिचय ध्रुवदास जी ने निम्न कवित्त में दिया है :
प्रीतम किशोरी गोरी रसिक रंगीली जोरी ,
प्रेम के रंग ही बोरी शोभा कहि जाति है।
एक प्राण एक बेस एक ही सुभाव चाव ,
एक बात दुहुनि के मन को सुहाति है।
एक कुंज एक सेज एक पट ओढ़े बैठे ,
एक एक बीरी दोउ खंडि खंडि खात हैं।
एक रस एक प्राण एक दृष्टि हित ध्रुव
हेरि हेरि बढ़े चौंप क्यों हू न अघात हैं।।(बयालीस लीला :द्वितीय श्रंखला ;पृष्ठ १०३ )
राधा-कृष्ण के पारस्परिक प्रेम का वर्णन निम्न कवित्त में दृष्टव्य है :
जैसी अलबेली बाल तैसे अलबेले लाल ,
दुहुँनि में उलझी सहज शोभा नेह की।
चाहनि के अम्बु दे- दे सींचत हैं छिन -छिन ,
आलबाल भई -सेज छाया कुञ्ज गेह की।।
अनुदिन हरी होति पानिष वदन जोति ,
ज्यों ज्यों ही बौछार ध्रुव लागे रूप मेह की।
नैननि की वारि किये हरैं सखी मन दियें ,
चित्र सी ह्वै रही सब भूली सुधि देह की।।(बयालीस लीला :प्रथम श्रंखला}
ध्रुवदास जी ने अपनी आराध्या राधा के स्वाभाव तथा सौन्दर्य का वर्णन कई कवित्त और सवैयों में किआ है। निम्न कवित्त उनकी काव्य-प्रतिभा एवं कल्पना शक्ति का पूर्ण परिचायक है।
हँसनि में फूलन की चाहन में अमृत की ,
नख सिख रूप ही की बरषा सी होति है।
केशनि की चन्द्रिका सुहाग अनुराग घटा ,
दामिनी की लसनि दशनि ही की दोति है।।
हित ध्रुव पानिप तरंग रस छलकत ,
ताको मानो सहज सिंगार सीवाँ पोति है।
अति अलबेलि प्रिये भूषित भूषन बिनु ,
छिन छिन औरे और बदन की जोति है।।(बयालीस लीला :भजन श्रृंगार सत लीला )
राधा-कृष्ण की संयोग परक लीलाओं में होरी,झूलन, मंगला ,द्युत-क्रीड़ा ,जल-विहार,रास आदि सभी लीलाओं का वर्णन ध्रुवदास ने किया है। होरी के निम्न वर्णन को पढ़कर होली खेलते हुए नर-नारियों का वास्तविक चित्र पाठक के सम्मुख आ जाता है।
लाल लड़ैती जू खेलहीं आज होरी का त्यौहार हो।
फूली संग सखी सबै निरखत प्रेम विहार हो।।
प्यारी पहिरैं सारी केशरी दिए बेंदी लाल गुलाल हो।
मोहे मोहन मोहनी चितवनि नैन विशाल हो।।
अद्भुत उड़न गुलाल की पिचकारी धार निहारि हो।
मानों घन अनुराग के वरषत आनंद वारि हो।।
लटकनि ललित सुहावनी पद मटकनि करनि सुदेश हो।
झटकनि उर हारावली ध्रुव कहि न सकत छवि लेश हो।। (पद्यावली ;पृष्ठ २० )
राधा-कृष्ण का यह विहार केवल प्रेम का विहार है। प्रेम के प्रकाशनार्थ प्रेम-स्वरुप राधा-कृष्ण परस्पर क्रीड़ा करते हैं। प्रेम-सर्वस्वा सखियाँ ही इन प्रेम-लीलाओं का आस्वादन करती हैं। तथा इन लीलाओं की स्थली वृन्दावन-धाम भी प्रेममय है। तात्पर्य यह है कि नित्य विहार में साधन एवं साध्य सभी कुछ प्रेम है।
प्यार ही की कुंज और प्यार ही की सेज रचि ,
प्यार ही सों प्यारे लाल प्यारी बात करहीं।
प्यार ही की चितवनि मुसिकनि प्यार ही की ,
प्यार ही सों प्यारी जू को प्यारो अंक भरहीं।।
प्यार सों लटकि रहे ,प्यार ही सों मुख चहै।
प्यार ही सों प्यारो प्रिया अंक भुज धरहीं।
हित ध्रुव प्यार भरी प्यारी सखी देखैं खरी ,
प्यारे प्यार रह्यो छाइ प्यार रस ढ़रहीं।।
ध्रुवदास अपने मन को शिक्षा देते हुए कहते हैं ~
रे मन अरु सब छाँड़ि के ,जो अटके इकठौर।
वृन्दावन घन कुंज में ,जहाँ रसिक सिरमौर।।
सखी भाव से उपास्य-युगल की सेवा करना और सेवा करते हुए उनके विहार का दर्शन कर कृतार्थ होना ही ध्रुवदास की दृष्टि में उपासक का धर्म है।
साभार स्रोत :ग्रन्थानुक्रमणिका
- बयालीस लीला और पद्यावली :श्री ध्रुवदास
- ब्रजभाषा के कृष्ण- काव्य में माधुर्य भक्ति :डॉ रूपनारायण: :हिन्दी अनुसन्धान परिषद् दिल्ली विश्वविद्यालय दिल्ली के निमित्त :नवयुग प्रकाशन दिल्ली -७
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