By : अशर्फी लाल मिश्र
अशर्फी लाल मिश्र
जीवन परिचय :
अशर्फी लाल मिश्र
जीवन परिचय :
भक्त कवियों में नागरीदास नाम के तीन कवि विख्यात हैं ,परन्तु राधा-वल्लभ सम्प्रदाय के नागरीदास जी के नाम के पूर्व नेही उपाधि के कारण आप अन्य कवियों से सहज ही अलग हो जाते हैं। नागरीदास जी का जन्म पँवार क्षत्रिय कुल में ग्राम बेरछा (बुन्देलखंड ) में हुआ था। इनके जन्म-संवत का निर्णय समसामयिक भक्तों के उल्लेख से ही किया जा सकता है। इस आधार पर नागरीदास जी जन्म-संवत १५९० के आसपास ठहरता है।
भक्ति की ओर नागरीदास जी की रूचि शैशव से ही थी। भक्त-जनों से मिलकर आपको अत्यधिक प्रसन्नता होती थी। एक बार सौभाग्य से स्वामी चतुर्भुजदास जी से आप का मिलाप हुआ। इनके सम्पर्क से रस-भक्ति का रंग नागरीदास जी को लगा और ये घर -परिवार छोड़कर वृन्दावन चले आये। यहाँ आकर आपने वनचंद स्वामी से दीक्षा ली. (श्री हितहरिवंश गोस्वामी सम्प्रदाय और साहित्य :गो ;पृष्ठ ४१७ )
इस प्रकार रस-भक्ति में इनका प्रवेश हुआ।
नेही नागरीदास जी हितवाणी और नित्य विहार में अनन्य निष्ठां थी। वे हितवाणी के अनुशीलन में इतने लीन रहते की उन्हें अपने चारों ओर के वातावरण का भी बोध न रहता। परन्तु इस प्रकार के सरल और अनन्य भक्त से भी कुछ द्वेष किया और इन्हें विवस होकर वृन्दावन छोड़ बरसाने जाना पड़ा।इस बात का उल्लेख नागरीदास जी ने स्वयं किया है :
जिनके बल निधरक हुते ते बैरी भये बान।
तरकस के सर साँप ह्वै फिरि-फिरि लागै खान।।
नागरीदास जी राधावल्लभ सम्प्रदाय के प्रारम्भिक कवियों में गिने जाते हैं। ध्रुवदास जी को जिस प्रकार सम्प्रदाय की रस-रीति को सुगठित बनाने का श्रेय है ,उसीप्रकार नागरीदास जी को उसके उपासना-मार्ग को सुव्यवस्थित बनाने का गौरव प्राप्त है (श्री हितहरिवंश गोस्वामी सम्प्रदाय और साहित्य :गोस्वामी ललिता चरण गोस्वामी :पृष्ठ ४२१ )
रचनाएँ ;
भक्ति की ओर नागरीदास जी की रूचि शैशव से ही थी। भक्त-जनों से मिलकर आपको अत्यधिक प्रसन्नता होती थी। एक बार सौभाग्य से स्वामी चतुर्भुजदास जी से आप का मिलाप हुआ। इनके सम्पर्क से रस-भक्ति का रंग नागरीदास जी को लगा और ये घर -परिवार छोड़कर वृन्दावन चले आये। यहाँ आकर आपने वनचंद स्वामी से दीक्षा ली. (श्री हितहरिवंश गोस्वामी सम्प्रदाय और साहित्य :गो ;पृष्ठ ४१७ )
इस प्रकार रस-भक्ति में इनका प्रवेश हुआ।
नेही नागरीदास जी हितवाणी और नित्य विहार में अनन्य निष्ठां थी। वे हितवाणी के अनुशीलन में इतने लीन रहते की उन्हें अपने चारों ओर के वातावरण का भी बोध न रहता। परन्तु इस प्रकार के सरल और अनन्य भक्त से भी कुछ द्वेष किया और इन्हें विवस होकर वृन्दावन छोड़ बरसाने जाना पड़ा।इस बात का उल्लेख नागरीदास जी ने स्वयं किया है :
जिनके बल निधरक हुते ते बैरी भये बान।
तरकस के सर साँप ह्वै फिरि-फिरि लागै खान।।
नागरीदास जी राधावल्लभ सम्प्रदाय के प्रारम्भिक कवियों में गिने जाते हैं। ध्रुवदास जी को जिस प्रकार सम्प्रदाय की रस-रीति को सुगठित बनाने का श्रेय है ,उसीप्रकार नागरीदास जी को उसके उपासना-मार्ग को सुव्यवस्थित बनाने का गौरव प्राप्त है (श्री हितहरिवंश गोस्वामी सम्प्रदाय और साहित्य :गोस्वामी ललिता चरण गोस्वामी :पृष्ठ ४२१ )
रचनाएँ ;
- सिद्धांत दोहावली :९३५ दोहे
- पदावली : पद १०२
- रस पदावली ;(स्फुट पद सहित ) २३२ पद
भक्ति माधुर्य :
नागरीदास जी ने आत्म-परिचय के रूप में लिखे गए एक सवैये में अपने आराध्य ,अपनी उपासना और अपने उपासक- धर्म का सुन्दर दंग से उल्लेख किया है:
सुन्दर श्री बरसानो निवास और बास बसों श्री वृन्दावन धाम है।
देवी हमारे श्री राधिका नागरी गोत सौं श्री हरिवंश नाम है।।
देव हमारे श्रीराधिकावल्लभ रसिक अनन्य सभा विश्राम है।
नाम है नागरीदासि अली वृषभान लली की गली को गुलाम है।।
इस सवैये से कि नेही जी के आराध्य राधा और कृष्ण हैं। कृष्ण का महत्व राधिकावल्लभ के रूप में ही अंगीकार किया गया है। स्वयं नागरीदास जी वृषभान लली की गली को गुलाम हैं। नागरीदास जी की निष्ठां एवं अनन्यता अत्यधिक तीव्र थी। अपने राधाष्टक में आपने राधा और श्री हितहरिवंश के अतिरिक्त किसी और को स्वीकर नहीं किया है। इसी कारण राधाष्टक की राधावल्लभ सम्प्रदाय में अत्यधिक मान्यता है ~~
रसिक हरिवंश सरवंश श्री राधिका , सरवंश हरवंश वंशी।
हरिवंश गुरु शिष्य हरिवंश प्रेमवाली हरिवंश धन धर्म राधा प्रशंसी।
राधिका देह हरिवंश मन , राधिका हरिवंश श्रुतावतंशी।
रसिक जन मननि आभरन हरिवंश हितहरिवंश आभरन कल हंस हंसी।।
राधा और हितहरिवंश में इस प्रकार की दृढ़ निष्ठां के कारण जहाँ एक ओर उन्होंने अपने पदों में बरसाने का वर्णन किया है ~
बरसानों हमारी रजधानी रे।
महाराज वृषभानु नृपति जहाँ कीरतिदा सुभ रानी रे।।
गोपी-गोप ओप सौं राजैं बोलत माधुरी बानी रे।
रसिक मुकटमणि कुँवरि राधिका वेद पुरान बखानी रे।।
खोरि साँकरी मोहन ढुक्यो दान केलि रति ठानी रे।
गइवर गिरिवन बीथिन विहरत गढ़ विलास सुख दानी रे।।
वहीँ दूसरी ओर हरिवंश जी की वाणी का यशोगान किया है। उनके मत में हितवाणी सर्वगुण सम्पन्न ,अगाध ,अमल और रतिसाध से ओतप्रोत है। उसकी गम्भीरता को केवल रस-मर्मज्ञ ही अनुभव कर सकते हैं। इस वाणी रुपी गुन (डोर )में हितहरिवंश ने रसिक-भक्तों के धारण करने के लिए राधा-कृष्ण नित्य नूतन छवि को पिरोया है :
व्यास सुवन वानी अमल अति गुन अमित अगाध।
मोद विनोद लड़ावने लोभ ललक रति-साथ।।
अति अगाध आनन्द अमल प्रेम ललक रस मूल।
हास विलास हुलास में वानी में अति फूल।।
नव नव छवि अति विमल नग गुन वानी मृदु मोहि।
रूप भेद रचि रसिक मनि सुजन धरैं मन मोहि।।
प्रेम में मग्न हो नागरीदास ने राधा-कृष्ण की विविध लीलाओं का वर्णन अपनी वाणी में किया है। रास के इस वर्णन में कवि ने तत्कालीन हाव-भावों का सुन्दर निरूपण किया है इसके अतिरिक्त नृत्य के अनुरूप भाषा में भी गति और लय लक्षित होता है:
उधरि मुख मुसकि मृदु ललित करताल दे ,
सुरत तांडव अलग लाग लीनी।
विविध विध रमित रति देत सुख प्रानपति।
छाम कटि किंकिनी कुनित कीनी।।
उरप तिरपनि लेट सरस् आलाप गति,
मुदित मद देन मधु अधर दीनी।
अमित उपजनि सहित सार सुख संचि रति ,
भाम हिय लखत रमि रंग भीनी।।
स्वाद चौपनि चढ़ी लाड़ लाड़िली लड़ी ,
अवनि दुति तन तड़ित घन सुछीनी।
कोक-संगीत गुन मथन की माधुरी ,
नागरीदासि अलि दृगनि भीनी।।
साभार स्रोत :ग्रन्थ अनुक्रमणिका
राधा और हितहरिवंश में इस प्रकार की दृढ़ निष्ठां के कारण जहाँ एक ओर उन्होंने अपने पदों में बरसाने का वर्णन किया है ~
बरसानों हमारी रजधानी रे।
महाराज वृषभानु नृपति जहाँ कीरतिदा सुभ रानी रे।।
गोपी-गोप ओप सौं राजैं बोलत माधुरी बानी रे।
रसिक मुकटमणि कुँवरि राधिका वेद पुरान बखानी रे।।
खोरि साँकरी मोहन ढुक्यो दान केलि रति ठानी रे।
गइवर गिरिवन बीथिन विहरत गढ़ विलास सुख दानी रे।।
वहीँ दूसरी ओर हरिवंश जी की वाणी का यशोगान किया है। उनके मत में हितवाणी सर्वगुण सम्पन्न ,अगाध ,अमल और रतिसाध से ओतप्रोत है। उसकी गम्भीरता को केवल रस-मर्मज्ञ ही अनुभव कर सकते हैं। इस वाणी रुपी गुन (डोर )में हितहरिवंश ने रसिक-भक्तों के धारण करने के लिए राधा-कृष्ण नित्य नूतन छवि को पिरोया है :
व्यास सुवन वानी अमल अति गुन अमित अगाध।
मोद विनोद लड़ावने लोभ ललक रति-साथ।।
अति अगाध आनन्द अमल प्रेम ललक रस मूल।
हास विलास हुलास में वानी में अति फूल।।
नव नव छवि अति विमल नग गुन वानी मृदु मोहि।
रूप भेद रचि रसिक मनि सुजन धरैं मन मोहि।।
प्रेम में मग्न हो नागरीदास ने राधा-कृष्ण की विविध लीलाओं का वर्णन अपनी वाणी में किया है। रास के इस वर्णन में कवि ने तत्कालीन हाव-भावों का सुन्दर निरूपण किया है इसके अतिरिक्त नृत्य के अनुरूप भाषा में भी गति और लय लक्षित होता है:
उधरि मुख मुसकि मृदु ललित करताल दे ,
सुरत तांडव अलग लाग लीनी।
विविध विध रमित रति देत सुख प्रानपति।
छाम कटि किंकिनी कुनित कीनी।।
उरप तिरपनि लेट सरस् आलाप गति,
मुदित मद देन मधु अधर दीनी।
अमित उपजनि सहित सार सुख संचि रति ,
भाम हिय लखत रमि रंग भीनी।।
स्वाद चौपनि चढ़ी लाड़ लाड़िली लड़ी ,
अवनि दुति तन तड़ित घन सुछीनी।
कोक-संगीत गुन मथन की माधुरी ,
नागरीदासि अलि दृगनि भीनी।।
साभार स्रोत :ग्रन्थ अनुक्रमणिका
- श्री हितहरिवंश गोस्वामी सम्प्रदाय और सिद्धान्त :ललिता चरण गोस्वामी
- ब्रजभाषा के कृष्ण- काव्य में माधुर्य भक्ति :डॉ रूपनारायण :हिन्दी अनुसन्धान परिषद् दिल्ली विश्वविद्यालय दिल्ली के निमित्त :नवयुग प्रकाशन दिल्ली -७
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