By : अशर्फी लाल मिश्र
अशर्फी लाल मिश्र
जीवन परिचय :
हरिराम व्यास की राधावल्लभ सम्प्रदाय के प्रमुख भक्त कवियों में गणना की जाती है। ओरछानरेश महाराज मधुकरशाह के राजगुरु हरिराम व्यास ब्रजमंडल के प्रसिद्ध रसिक भक्तों में से हैं। इनका जन्म-स्थान ओरछा (टीकमगढ़ ) राज्य माना जाता है। व्यास जी के जन्म- संवत में कोई ऐतिहासिक या अन्य ऐसा उल्लेख नहीं मिलता जिसके आधार पर निर्विवाद रूप से कुछ कहा जा सके । परन्तु इनकी रचनाओं और अन्य भक्त कवियों की वाणी से जो संकेत उपलब्ध होते हैं आधार पर व्यास जी का जन्म -संवत १५४९ और मृत्यु-संवत १६५० से १६५५ के मध्य स्वीकार किया जा सकता है।
व्यास जी के उपास्य श्यामा-श्याम रूप, गुण तथा स्वाभाव सभी दृष्टियों से उत्तम हैं। ये वृन्दावन में विविध प्रकार रास आदि की लीलाएं करते हैं। इन्हीं लीलाओं का दर्शन करके रसिक भक्त आत्म-विस्मृति की आनन्दपूर्ण दशा को सहज ही प्राप्त कर लेते हैं। यद्यपि रधावल्लभ सम्प्रदाय में राधा और कृष्ण को परस्पर किसी प्रकार के स्वकीया या परकीया भाव के बन्धन में नहीं बाँधा गया ,किन्तु लीलाओं का वर्णन करते समय कवि ने सूरदास की भाँति यमुना-पुलिन पर अपने उपास्य-युगल का विवाह करवा दिया है।
मोहन मोहिनी को दूलहु।
मोहन की दुलहिनी मोहनी सखी निरखि निरखि किन फूलहु।
सहज ब्याह उछाह ,सहज मण्डप ,सहज यमुना के कूलहू।
सहज खवासिनि गावति नाचति सहज सगे समतूलहु।। (व्यास वाणी ;पृष्ठ ३६२ )
यही कृष्ण और राधा व्यास जी सर्वस्व हैं। इनके आश्रय में ही जीव को सुख की प्राप्ति हो सकती है,अन्यत्र तो केवल दुख ही दुख है। इसीकारण अपने उपास्य के चरणों में दृढ़ विश्वास रखकर सुख से जीवन व्यतीत करते हैं:
काहू के बल भजन कौ ,काहू के आचार।
व्यास भरोसे कुँवरि के ,सोवत पाँव पसार।।(व्यास वाणी :पृष्ठ १ ८ २ )
राधा के रूप सौन्दर्य का वर्णन दृष्टव्य है :
नैन खग उड़िबे को अकुलात।
उरजन डर बिछुरे दुख मानत ,पल पिंजरा न समात।।
घूंघट विपट छाँह बिनु विहरत ,रविकर कुलहिं ड़रात।
रूप अनूप चुनौ चुनि निकट अधर सर देखि सिरात।।
धीर न धरत ,पीर कहि सकत न ,काम बधिक की घात।
व्यास स्वामिनी सुनि करुना हँसि ,पिय के उर लपटात।।( व्यास वाणी :पृष्ठ २४२ )
साधना की दृष्टि व्यास जी भक्ति का विशेष महत्व स्वीकार किया है है। उनके विचार से व्यक्ति का जीवन केवल भक्ति से सफल हो सकता है :
जो त्रिय होइ न हरि की दासी।
कीजै कहा रूप गुण सुन्दर,नाहिंन श्याम उपासी।।
तौ दासी गणिका सम जानो दुष्ट राँड़ मसवासी।
निसिदिन अपनों अंजन मंजन करत विषय की रासी।।
परमारथ स्वप्ने नहिं जानत अन्ध बंधी जम फाँसी। ----(व्यास वाणी ;पृष्ठ ८४ )
व्यास जी के अनुसार प्रत्येक रसिक भक्त को अनन्य भाव से राधा-कृष्ण की भक्ति करनी चाहिए। राधा-कृष्ण की इस प्रेमाभक्ति से सभी कुछ सिद्ध हो जाता है:
नैन न मूंदे ध्यान कौ ,किये न अंगनि न्यास।
नांचि गाय रसहिं मिले ,वसि वृन्दावन वास।।(व्यास वाणी :पृष्ठ १ ८१ )
इस प्रकार की भक्ति में केवल वृन्दावन वास की ही शर्त है। वृन्दावन का महत्व श्यामा-श्याम की विहार स्थली के कारन है। यहाँ रहते हुए जीव को उपास्य-युगल की नित्य होने वाली विविध प्रेम-लीलाओं का साक्षात अनुभव होता है।अतः इससे अधिक सुविधाजनक एवं रमणीय वास का स्थान और कोई भी नहीं हो सकता। वृन्दावन का महत्व स्वीकार करने के साथ-साथ व्यास जी ने वृन्दावन की शोभा का भी सरस शव्दावली में वर्णन किया है। वसंत कालीन वृन्दावन का वर्णन :
चल चलहिं वृन्दावन वसन्त आयो।
झूलत झूलन के झँवरा मारुत मकरन्द उड़ायो ।।
मधुकर कोकिल कीर कोक मिलि कोलाहल उपजायो।
नाचत स्याम बजावत गावत राधा राग जमायो।।
चौबा चंदन बूका बन्द्न लाल गुलाल उड़ायो।
स्याम स्यामिनी की छवि निरखत रोम-रोम सचु पायो।।(व्यास वाणी :पृष्ठ ४१५ ) पावस ऋतु का वर्णन ~~
आजु कछु कुंजन में वर्षा सी।
बादल दल में देखि सखी री चमकति है चपला सी।।
नान्हीं नान्हीं बूंदनि कछु धुरवा से बहै सुखरासी।
मंद मंद गरजनि सी सुनियत नाचती मोर सभा सी।।
इंद्रधनुष बग पंगत डोलति ,बोलति कोक-कला सी।
इन्द्र वधू छवि छाइ रही ,मनु गिरि पर अरुन घटा सी।।
उमगि मही रूह सेमहि फूली भूली मृग माला सी।
रटत व्यास चातक ज्यों रसना रस पीवत हूँ प्यासी।।(व्यास वाणी :पृष्ठ ३९२ )
नृत्य के निम्न वर्णन में व्यास जी जहाँ एक ओर राधा और कृष्ण की अंग-चेष्टाओं का सुन्दर ढंग से निरूपण किया है,वहाँ विषयानुकूल शब्द योजना द्वारा नृत्य के अनुरूप गीत में भी गति,ताल और लय लाने की चेष्टा की है :
श्याम नटुवा नटत राधिका संगे।
पुलिन अद्भुत रच्यो ,रूप गुन सुख सच्यौ ,निरखि मनमथबधू मान-भंगे।।
तत्त थेई थेई मान ,सप्तसुर षट गान,राग रागिनी तान श्रवन भंगे।
लटकि -मुह -पटकि ,पद मटकि ,पटु झटकि ,हँसि विविध कल माधुरी अंग अंगे।।
रतन कंकन क्वनित किंकिन नूपुरा-चर्चरी ताल मिलि मनि मृदंग।
लेति नागर उरप ,कुँवरि औचर तिरप ,व्यासदासि सुघरवर सुधंगे।। (व्यास वाणी :[पृष्ठ ३४४ )
अशर्फी लाल मिश्र
जीवन परिचय :
हरिराम व्यास की राधावल्लभ सम्प्रदाय के प्रमुख भक्त कवियों में गणना की जाती है। ओरछानरेश महाराज मधुकरशाह के राजगुरु हरिराम व्यास ब्रजमंडल के प्रसिद्ध रसिक भक्तों में से हैं। इनका जन्म-स्थान ओरछा (टीकमगढ़ ) राज्य माना जाता है। व्यास जी के जन्म- संवत में कोई ऐतिहासिक या अन्य ऐसा उल्लेख नहीं मिलता जिसके आधार पर निर्विवाद रूप से कुछ कहा जा सके । परन्तु इनकी रचनाओं और अन्य भक्त कवियों की वाणी से जो संकेत उपलब्ध होते हैं आधार पर व्यास जी का जन्म -संवत १५४९ और मृत्यु-संवत १६५० से १६५५ के मध्य स्वीकार किया जा सकता है।
व्यास जी जन्म सनाढ्य ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम समोखन शुक्ल था ,इसी नाम को कतिपय स्थलों सुमोखन या सुखोमणि भी लिखा गया है। व्यास जी ने अपने परिवार की परम्परा के अनुकूल शैशव में ही संस्कृत का अच्छा ज्ञान प्राप्त किया था। वे बड़े विद्या-व्यसनी पंडित थे। पुराण और दर्शन से विशेष अनुराग था।
व्यास जी सच्चे आस्तिक भाव के गृहस्थ थे ,युवावस्था में उनका विवाह हुआ था। उनकी पत्नी का नाम गोपी कहा जाता है। निम्न दोहे से प्रतीत होता है कि इनके दीक्षा- गुरु हितहरिवंश थे :
उपदेस्यो रसिकन प्रथम ,तब पाये हरिवंश।
जब हरिवंश कृपा करी ,मिठे व्यास के संश।।
भक्तों और साधु -सन्तों की सेवा को ही व्यास जी जीवन की सार्थकता मानते थे।
रचनाएँ :
- व्यास-वाणी (हिन्दी में )-प्रकाशित
- रागमाला (हिन्दी में )
- नवरत्न ((संस्कृत में)
- स्वधर्म पद्धति (संस्कृत में)
माधुर्य भक्ति
व्यास जी के उपास्य श्यामा-श्याम रूप, गुण तथा स्वाभाव सभी दृष्टियों से उत्तम हैं। ये वृन्दावन में विविध प्रकार रास आदि की लीलाएं करते हैं। इन्हीं लीलाओं का दर्शन करके रसिक भक्त आत्म-विस्मृति की आनन्दपूर्ण दशा को सहज ही प्राप्त कर लेते हैं। यद्यपि रधावल्लभ सम्प्रदाय में राधा और कृष्ण को परस्पर किसी प्रकार के स्वकीया या परकीया भाव के बन्धन में नहीं बाँधा गया ,किन्तु लीलाओं का वर्णन करते समय कवि ने सूरदास की भाँति यमुना-पुलिन पर अपने उपास्य-युगल का विवाह करवा दिया है।
मोहन मोहिनी को दूलहु।
मोहन की दुलहिनी मोहनी सखी निरखि निरखि किन फूलहु।
सहज ब्याह उछाह ,सहज मण्डप ,सहज यमुना के कूलहू।
सहज खवासिनि गावति नाचति सहज सगे समतूलहु।। (व्यास वाणी ;पृष्ठ ३६२ )
यही कृष्ण और राधा व्यास जी सर्वस्व हैं। इनके आश्रय में ही जीव को सुख की प्राप्ति हो सकती है,अन्यत्र तो केवल दुख ही दुख है। इसीकारण अपने उपास्य के चरणों में दृढ़ विश्वास रखकर सुख से जीवन व्यतीत करते हैं:
काहू के बल भजन कौ ,काहू के आचार।
व्यास भरोसे कुँवरि के ,सोवत पाँव पसार।।(व्यास वाणी :पृष्ठ १ ८ २ )
राधा के रूप सौन्दर्य का वर्णन दृष्टव्य है :
नैन खग उड़िबे को अकुलात।
उरजन डर बिछुरे दुख मानत ,पल पिंजरा न समात।।
घूंघट विपट छाँह बिनु विहरत ,रविकर कुलहिं ड़रात।
रूप अनूप चुनौ चुनि निकट अधर सर देखि सिरात।।
धीर न धरत ,पीर कहि सकत न ,काम बधिक की घात।
व्यास स्वामिनी सुनि करुना हँसि ,पिय के उर लपटात।।( व्यास वाणी :पृष्ठ २४२ )
साधना की दृष्टि व्यास जी भक्ति का विशेष महत्व स्वीकार किया है है। उनके विचार से व्यक्ति का जीवन केवल भक्ति से सफल हो सकता है :
जो त्रिय होइ न हरि की दासी।
कीजै कहा रूप गुण सुन्दर,नाहिंन श्याम उपासी।।
तौ दासी गणिका सम जानो दुष्ट राँड़ मसवासी।
निसिदिन अपनों अंजन मंजन करत विषय की रासी।।
परमारथ स्वप्ने नहिं जानत अन्ध बंधी जम फाँसी। ----(व्यास वाणी ;पृष्ठ ८४ )
व्यास जी के अनुसार प्रत्येक रसिक भक्त को अनन्य भाव से राधा-कृष्ण की भक्ति करनी चाहिए। राधा-कृष्ण की इस प्रेमाभक्ति से सभी कुछ सिद्ध हो जाता है:
नैन न मूंदे ध्यान कौ ,किये न अंगनि न्यास।
नांचि गाय रसहिं मिले ,वसि वृन्दावन वास।।(व्यास वाणी :पृष्ठ १ ८१ )
इस प्रकार की भक्ति में केवल वृन्दावन वास की ही शर्त है। वृन्दावन का महत्व श्यामा-श्याम की विहार स्थली के कारन है। यहाँ रहते हुए जीव को उपास्य-युगल की नित्य होने वाली विविध प्रेम-लीलाओं का साक्षात अनुभव होता है।अतः इससे अधिक सुविधाजनक एवं रमणीय वास का स्थान और कोई भी नहीं हो सकता। वृन्दावन का महत्व स्वीकार करने के साथ-साथ व्यास जी ने वृन्दावन की शोभा का भी सरस शव्दावली में वर्णन किया है। वसंत कालीन वृन्दावन का वर्णन :
चल चलहिं वृन्दावन वसन्त आयो।
झूलत झूलन के झँवरा मारुत मकरन्द उड़ायो ।।
मधुकर कोकिल कीर कोक मिलि कोलाहल उपजायो।
नाचत स्याम बजावत गावत राधा राग जमायो।।
चौबा चंदन बूका बन्द्न लाल गुलाल उड़ायो।
स्याम स्यामिनी की छवि निरखत रोम-रोम सचु पायो।।(व्यास वाणी :पृष्ठ ४१५ ) पावस ऋतु का वर्णन ~~
आजु कछु कुंजन में वर्षा सी।
बादल दल में देखि सखी री चमकति है चपला सी।।
नान्हीं नान्हीं बूंदनि कछु धुरवा से बहै सुखरासी।
मंद मंद गरजनि सी सुनियत नाचती मोर सभा सी।।
इंद्रधनुष बग पंगत डोलति ,बोलति कोक-कला सी।
इन्द्र वधू छवि छाइ रही ,मनु गिरि पर अरुन घटा सी।।
उमगि मही रूह सेमहि फूली भूली मृग माला सी।
रटत व्यास चातक ज्यों रसना रस पीवत हूँ प्यासी।।(व्यास वाणी :पृष्ठ ३९२ )
नृत्य के निम्न वर्णन में व्यास जी जहाँ एक ओर राधा और कृष्ण की अंग-चेष्टाओं का सुन्दर ढंग से निरूपण किया है,वहाँ विषयानुकूल शब्द योजना द्वारा नृत्य के अनुरूप गीत में भी गति,ताल और लय लाने की चेष्टा की है :
श्याम नटुवा नटत राधिका संगे।
पुलिन अद्भुत रच्यो ,रूप गुन सुख सच्यौ ,निरखि मनमथबधू मान-भंगे।।
तत्त थेई थेई मान ,सप्तसुर षट गान,राग रागिनी तान श्रवन भंगे।
लटकि -मुह -पटकि ,पद मटकि ,पटु झटकि ,हँसि विविध कल माधुरी अंग अंगे।।
रतन कंकन क्वनित किंकिन नूपुरा-चर्चरी ताल मिलि मनि मृदंग।
लेति नागर उरप ,कुँवरि औचर तिरप ,व्यासदासि सुघरवर सुधंगे।। (व्यास वाणी :[पृष्ठ ३४४ )
रसिक भक्त लोक-लाज ,वेद-विधि आदि सभी से ऊपर उठकर सदा राधा-कृष्ण की इन्हीं लीलाओं में मस्त रहता है। उसे किसी के उपहास की चिन्ता नहीं और न ही किसी की प्रशंसा की अपेक्षा है। यही उपासक की अनन्यता है। उसका आदर्श लोक,लाज ,कुल कानि आदि सभी परित्याग करके कृष्ण-प्रेम में अनुरक्त गोपी हैल
जो भावै सो लोगन कहन दे।
अवनि पिछौडी पाँव न दीजै , न्याव मेटि प्रीति निबहन दै ।।
हौं जोवन मदमाती सखी री ,मेरी छतियाँ पर मोहन रहन दै ।
नव निकुंज पिय अंग संग मिलि सुरति पुंज रससिन्धु थहन दै।।
या सुखकारन व्यास आस के लोक वेद उपहास सहन दै।(व्यास वाणी :पृष्ठ ५१७ )
उपासक-धर्म के में व्यास जी ने सखी- भाव से राधा-कृष्ण की सेवा का उल्लेख अपनी वाणी में किया है। उनके अनेक पदों में व्यास-दासि का उल्लेख मिल जाता है। किन्तु निम्न पद में तो उन्होंने स्पष्ट रूप से अपनी स्वामिनी प्रिया के चरणों में सहचरी भाव प्राप्ति की अभिलाषा प्रकट की है~~
बलि जाऊँ राधा मोहिं रहन दै वृन्दावन के सरन।
मोको ठौर न और कहूँ जब सेऊँगो ये चरन।।
सहचरि ह्वै तेरी सेवा करिहूँ ,पहिराऊँ आभरन।
अति उदार अंग अंग माधुरी ,रोम रोम सुख करन।।
देखौं केलि वेलि मन्दिर में किंकिनी रव-श्रवन।
दीजै वेगि व्यास को यह सुख जहाँ न जीवन मरन।।(व्यास वाणी ;पृष्ठ १७७-७८ )
साभार स्रोत : ग्रन्थ अनुक्रमणिका
जो भावै सो लोगन कहन दे।
अवनि पिछौडी पाँव न दीजै , न्याव मेटि प्रीति निबहन दै ।।
हौं जोवन मदमाती सखी री ,मेरी छतियाँ पर मोहन रहन दै ।
नव निकुंज पिय अंग संग मिलि सुरति पुंज रससिन्धु थहन दै।।
या सुखकारन व्यास आस के लोक वेद उपहास सहन दै।(व्यास वाणी :पृष्ठ ५१७ )
उपासक-धर्म के में व्यास जी ने सखी- भाव से राधा-कृष्ण की सेवा का उल्लेख अपनी वाणी में किया है। उनके अनेक पदों में व्यास-दासि का उल्लेख मिल जाता है। किन्तु निम्न पद में तो उन्होंने स्पष्ट रूप से अपनी स्वामिनी प्रिया के चरणों में सहचरी भाव प्राप्ति की अभिलाषा प्रकट की है~~
बलि जाऊँ राधा मोहिं रहन दै वृन्दावन के सरन।
मोको ठौर न और कहूँ जब सेऊँगो ये चरन।।
सहचरि ह्वै तेरी सेवा करिहूँ ,पहिराऊँ आभरन।
अति उदार अंग अंग माधुरी ,रोम रोम सुख करन।।
देखौं केलि वेलि मन्दिर में किंकिनी रव-श्रवन।
दीजै वेगि व्यास को यह सुख जहाँ न जीवन मरन।।(व्यास वाणी ;पृष्ठ १७७-७८ )
साभार स्रोत : ग्रन्थ अनुक्रमणिका
- व्यास वाणी
- ब्रजभाषा के कृष्ण- काव्य में माधुर्य भक्ति :डॉ रूपनारायण :हिन्दी अनुसन्धान परिषद् दिल्ली विश्वविद्यालय दिल्ली के निमित्त :नवयुग प्रकाशन दिल्ली -७
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