मंगलवार, 30 मई 2017

नागरीदास

By  : अशर्फी लाल मिश्र 
                                                              अशर्फी लाल मिश्र 

परिचय :
         नागरीदास हरिदासी सम्प्रदाय के चतुर्थ आचार्य भक्त कवि हैं। महन्त किशोरीदास के अनुसार आप का जन्म वि ० सं ० १६०० में हुआ। इसकी पुष्टि महन्त  किशोरी दास द्वारा निजमत सिद्धान्त के निम्न दिए उद्धरण  से होती है :
                       
                           सम्वत सोरह सै तनु धाऱयो। महा शुक्ल पंचमी बिचारयो।। 
ये तत्कालीन बंगाल  राजा के मंत्री कमलापति के पुत्र थे। ऐसा  है कि इनके  पिता पुनः प्राण-दान देने के कारण बिहारिनदेव जी का अपने ऊपर बहुत ऋण मानते थे। उसी ऋण से मुक्त होने के लिए उन्होंने अपने दो विरक्त  साधू  स्वभाव के पुत्रों को वृन्दावन  स्थित  श्री बिहारिनदेव की चरण-शरण में  भेज दिया। इन पुत्रों में बड़े नागरीदास और छोटे सरसदास थे।
          नागरीदास का सम्बन्ध गौड़ ब्राह्मण जाती से है किन्तु इनके जन्म स्थान आदि के सम्बन्ध में निश्चित रूप से कुछ भी पता नहीं है। लेकिन इनके पिता बंगाल के राजा के मंत्री थे इस आधार पर इनका जन्म बंगाल माना जा सकता है। बिहारिनदेव का शिष्यत्व स्वीकार कर लेने पर शेष जीवन वृन्दावन में बीता। दीक्षा ग्रहण  समय इनकी आयु २२ वर्ष की थी और ४ ८  वर्ष  का समय  इन्होंने वृन्दावन में भजन-भाव में व्यतीत किया। इस आधार पर इनका परलोक गमन  का समय वि  सं ० १६७० माना जा सकता है।

रचनाएँ :
        नागरीदास के स्फुट पद ,कवित्त ,सवैये आदि वाणी में संकलित हैं।


माधुर्य भक्ति :
              नागरीदास के उपास्य श्यामा-श्याम नित्य-किशोर ,अनादि ,एकरूप और  रसिक हैं। ये सदा विहार में लीन रहते हैं। इनका यह विहार निजी सुख के लिए नहीं ,दूसरे की प्रसन्नता के लिए है। अतः यह विहार नितांत शुद्ध है। इसके आगे काम का सुख कुछ भी नहीं है :
                       राग  रंग  रस   सुख   बाढ्यो   अति   सोभा   सिंध   अपार। 
                       विपुल    प्रेम   अनुराग  नवल   दोउ   करत  अहार   विहार।।
                      श्री वृन्दाविपुन विनोद करत नित छिन छिन प्रति सुखरासि। 
                       काम   केलि   माधुर्य   प्रेम   पर   बलि   बलि   नागरिदासि।।
            नागरीदास ने राधा-कृष्ण के इस नित्य-विहार का वर्णन विविध रूपों में किया है। निम्न पद में में राधा-कृष्ण के जल विहार का वर्णन दृष्टव्य है :
                      विहरत जमुना जल जुगराज। 
                      श्री वृन्दाविपुन विनोद सहित नवजुवतिन जूथ समाज।।
                       छिरकत  छैल   परस्पर  छवि  सों सखी सम्पति साज। 
                       नवल  नागरीदास   श्री  नागर   खेलत मिले चलै भाज।।
           कहीं -कहीं इन्होंने लीला वर्णन में रूपात्मक शैली का भी प्रयोग किया है :
                       खेलत चतुर चौंप चौगान। 
                       मंदिर     नवल      निकुंज      विराजत   नवरंग    मदन    मैदान।।
                      मन   तुरंग   गुन   कटाछनि    दृग   टोलनि  कुच   ढीह  पर   बान। 
                       होति तहाँ सरस प्रेम परस्पर रीझि सखी नागरीदास पर वारौं प्रान।।
           नागरीदास के विचार में नित्य विहार की साधना सरस होते हुए भी सरल नहीं है क्योंकि इसमें जरा सी भी असावधानी से पतन की सम्भावना बनी रहती है।
                       नित्य विहार सार सब को अति दुर्लभ अगम अपार। 
                       अनन्य धर्म संधि समुझे बिन माया कठिन किवार।।
साभार स्रोत:
* नागरीदास की वाणी
*ब्रजभाषा के कृष्ण- काव्य में माधुर्य भक्ति :डॉ रूपनारायण :हिन्दी अनुसन्धान परिषद् दिल्ली विश्वविद्यालय दिल्ली के निमित्त :नवयुग प्रकाशन दिल्ली -७

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