By :अशर्फी लाल मिश्र
अशर्फी लाल मिश्र
जीवन परिचय :
बिहारिनदेव हरिदासी सम्प्रदाय के श्रेष्ठ आचार्य एवं कवि हैं। ये विट्ठलविपुलदेव के शिष्य थे। विहारिनदेव अपने गुरु विट्ठलविपुलदेव की मृत्यु के पश्चात् टट्टी संस्थान की आचार्यगद्दी पर बैठे। विट्ठलविपुलदेव की मृत्यु वि ० सं ० १६३२ है अतः विहारिनदेव का जन्म संवत इस संवत के आसपास माना जा सकता है।
विहारिनदेव दिल्ली-निवासी थे। इनका जन्म शूरध्वज ब्राह्मण कुल में हुआ था। इनके पिता मित्रसेन अकबर के राज्य-सम्बन्धी कार्यकर्ताओं में एक प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। अपने शील-स्वभाव के कारण मृत्यु के उपरान्त विहारिनदेव को भी अपने पिता का सम्मानित पद प्राप्त हो गया किन्तु ये स्वभाव से विरक्त थे ,अतः युवावस्था में ही घर छोड़ कर वृन्दावन आ गये और वहीं भजन भाव में लीन होकर रहने लगे। इनकी रस-नीति , विरक्ति और शील-स्वभाव का वर्णन केवल हरिदासी सम्प्रदाय के भक्त कवियों ने नहीं ,अपितु अन्य सम्प्रदाय के भक्तों ने भी क्या है।
विहारिनदेव का महत्व अपने सम्प्रदाय में अत्यधिक है। हरिदासी सम्प्रदाय के यही प्रथम आचार्य हैं जिन्होंने संप्रदाय के उपासना सम्बन्धी सिद्धांतों को विशद रूप से प्रस्तुत किया। रस-रीति की तीव्र अनुभूति के कारण इनके प्रतिपादित सिद्धान्त बहुत स्पष्ट हैं ,और इसीलिए ाहज-गम्य हैं। इनके प्रतिपादित सिद्धान्तों की नींव पर आज हरिदासी सम्प्रदाय का विशाल भवन स्थिर है।
रचनाएँ :
विहारिनदेव की वाणी निम्न दो भागो में विभक्त है :
अशर्फी लाल मिश्र
जीवन परिचय :
बिहारिनदेव हरिदासी सम्प्रदाय के श्रेष्ठ आचार्य एवं कवि हैं। ये विट्ठलविपुलदेव के शिष्य थे। विहारिनदेव अपने गुरु विट्ठलविपुलदेव की मृत्यु के पश्चात् टट्टी संस्थान की आचार्यगद्दी पर बैठे। विट्ठलविपुलदेव की मृत्यु वि ० सं ० १६३२ है अतः विहारिनदेव का जन्म संवत इस संवत के आसपास माना जा सकता है।
विहारिनदेव दिल्ली-निवासी थे। इनका जन्म शूरध्वज ब्राह्मण कुल में हुआ था। इनके पिता मित्रसेन अकबर के राज्य-सम्बन्धी कार्यकर्ताओं में एक प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। अपने शील-स्वभाव के कारण मृत्यु के उपरान्त विहारिनदेव को भी अपने पिता का सम्मानित पद प्राप्त हो गया किन्तु ये स्वभाव से विरक्त थे ,अतः युवावस्था में ही घर छोड़ कर वृन्दावन आ गये और वहीं भजन भाव में लीन होकर रहने लगे। इनकी रस-नीति , विरक्ति और शील-स्वभाव का वर्णन केवल हरिदासी सम्प्रदाय के भक्त कवियों ने नहीं ,अपितु अन्य सम्प्रदाय के भक्तों ने भी क्या है।
विहारिनदेव का महत्व अपने सम्प्रदाय में अत्यधिक है। हरिदासी सम्प्रदाय के यही प्रथम आचार्य हैं जिन्होंने संप्रदाय के उपासना सम्बन्धी सिद्धांतों को विशद रूप से प्रस्तुत किया। रस-रीति की तीव्र अनुभूति के कारण इनके प्रतिपादित सिद्धान्त बहुत स्पष्ट हैं ,और इसीलिए ाहज-गम्य हैं। इनके प्रतिपादित सिद्धान्तों की नींव पर आज हरिदासी सम्प्रदाय का विशाल भवन स्थिर है।
रचनाएँ :
विहारिनदेव की वाणी निम्न दो भागो में विभक्त है :
- सिद्धान्त के दोहे ( लगभग ८०० )
- शृंगार के पद (लगभग ३०० )
माधुर्य भक्ति :
विहारिनदेव के उपास्य श्यामा-श्याम अजन्मा ,नित्य-किशोर तथा नित्य विहारी हैं। इनका रूप, भाव और वयस समान हैं। यद्यपि इनकी विहार लीला अपनी रूचि के अनुसार होती है किन्तु उनका उद्देश्य प्रेम प्रकाशन है। अतः भक्त इन विहार लीलाओं का चिन्तन एवं भावन करके प्रेम का आस्वादन करते हैं।
विहारिनदेव ने अपने उपास्य-युगल राधा-कृष्ण की प्रेम लीलाओं वर्णन अपनी काव्य-रचना में बहुत सुन्दर दंग से किया है। इनमें मान, भोजन ,झूलन ,नृत्य ,विहार आदि सभी लीलाओं का समावेश है। मान का त्याग कर अपने प्रियतम को सुख देने के लिए जाती हुई राधा का यह वर्णन बहुत सरस है ;
विगसे मुखचन्द्र अनंद सने सचिहार कुचै विच भाँति अली।
उतते रस राशि हुलास हिये इत चोप चढ़ी मिलि श्याम अली।।
सुविहारी बिहारिनिदासि सदा सुख देखत राजत कुंज अली।
तजि मान अयान सयान सबै यह लाल को ललना सुख दैन चली।।
निशि-विहार के उपरान्त प्रातःकाल सखियाँ कृष्ण की दशा देखकर सब रहस्य जान गईं,किन्तु कृष्ण नाना प्रकार से उस रहस्य को छिपाने का प्रयत्न करते हैं। कवि द्वारा कृष्ण की सुरतान्त छवि का सांगोपांग चित्रण :
आज क्यों मरगजी उरमाल।
देखिये विमल कमल नयन युगल लगत न पलक प्रवाल।
अति अरसात जम्हात रसमसे रस छाके नव बाल।।
अधर माधुरी के गुण जानत वनितन वचन रस ढाल।
फबें न पेंच सुदृढ़ शिथिल अलक बिगलित कुसुम गुलाल।।
विवश परे मन मनत आपने रंग पग भूषण माल।
सखिदेत सब प्रगट पिशुन तन काहे दुरावत लाल।।
अब कछु समुझि सयान बनावत बातें रचित रसाल।
बिहारीदास पिय प्रेम प्रिया वश बसे हैं कुंज निशि ब्याल।।
मधुर रस परिपाक की दृष्टि से यह है :
हँसि मिलिवो मेरे जिय ते न टरई।
सहज चिते चित चोर परस्पर प्रेम बचन सरस सुर ढरई।।
मदन मुदित बंद ही बंद छोरत उर जोरत मुख पर मुख धरई।
परम कृपाल रसाल लाड़िली लाले लटकि लपटि भुज भरई।।
प्यारी जू प्राणनाथ रस विलसत श्रम जलकन बरसत मन हरई।
श्री बिहारिनिदासि अंचल चंचल कर यह अवसर आनन्द अनुसरई।।
राधा-कृष्ण की नित्य विहार-परक लीलाएँ अपने सभी रूपों में भक्त के लिए सुखद हैं अतः उसकी यही अभिलाषा है कि वह इस प्रकार की आनन्द प्रद लीलाओं को नित्य-प्रति देखा करे :
अंगन संग लसें विलसँ परसे सुख सिंधु न प्रेम अघैहौं।
रूप लखें नित माधुर वैन श्रवन्न सु चैन सुनें गुण गैहौं।।
दंपति संपति संचि हिये धरि या सुख ते न कहूँ चलि जैहौं।
नित्य विहार अधार हमार बिहारी बिहारिनि की बलि जैहौं।।
साभार स्रोत :
विगसे मुखचन्द्र अनंद सने सचिहार कुचै विच भाँति अली।
उतते रस राशि हुलास हिये इत चोप चढ़ी मिलि श्याम अली।।
सुविहारी बिहारिनिदासि सदा सुख देखत राजत कुंज अली।
तजि मान अयान सयान सबै यह लाल को ललना सुख दैन चली।।
निशि-विहार के उपरान्त प्रातःकाल सखियाँ कृष्ण की दशा देखकर सब रहस्य जान गईं,किन्तु कृष्ण नाना प्रकार से उस रहस्य को छिपाने का प्रयत्न करते हैं। कवि द्वारा कृष्ण की सुरतान्त छवि का सांगोपांग चित्रण :
आज क्यों मरगजी उरमाल।
देखिये विमल कमल नयन युगल लगत न पलक प्रवाल।
अति अरसात जम्हात रसमसे रस छाके नव बाल।।
अधर माधुरी के गुण जानत वनितन वचन रस ढाल।
फबें न पेंच सुदृढ़ शिथिल अलक बिगलित कुसुम गुलाल।।
विवश परे मन मनत आपने रंग पग भूषण माल।
सखिदेत सब प्रगट पिशुन तन काहे दुरावत लाल।।
अब कछु समुझि सयान बनावत बातें रचित रसाल।
बिहारीदास पिय प्रेम प्रिया वश बसे हैं कुंज निशि ब्याल।।
मधुर रस परिपाक की दृष्टि से यह है :
हँसि मिलिवो मेरे जिय ते न टरई।
सहज चिते चित चोर परस्पर प्रेम बचन सरस सुर ढरई।।
मदन मुदित बंद ही बंद छोरत उर जोरत मुख पर मुख धरई।
परम कृपाल रसाल लाड़िली लाले लटकि लपटि भुज भरई।।
प्यारी जू प्राणनाथ रस विलसत श्रम जलकन बरसत मन हरई।
श्री बिहारिनिदासि अंचल चंचल कर यह अवसर आनन्द अनुसरई।।
राधा-कृष्ण की नित्य विहार-परक लीलाएँ अपने सभी रूपों में भक्त के लिए सुखद हैं अतः उसकी यही अभिलाषा है कि वह इस प्रकार की आनन्द प्रद लीलाओं को नित्य-प्रति देखा करे :
अंगन संग लसें विलसँ परसे सुख सिंधु न प्रेम अघैहौं।
रूप लखें नित माधुर वैन श्रवन्न सु चैन सुनें गुण गैहौं।।
दंपति संपति संचि हिये धरि या सुख ते न कहूँ चलि जैहौं।
नित्य विहार अधार हमार बिहारी बिहारिनि की बलि जैहौं।।
साभार स्रोत :
- ब्रजभाषा के कृष्ण- काव्य में माधुर्य भक्ति :डॉ रूपनारायण :हिन्दी अनुसन्धान परिषद् दिल्ली विश्वविद्यालय दिल्ली के निमित्त :नवयुग प्रकाशन दिल्ली -७
- विहारिनदेव की वाणी
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