By : अशर्फी लाल मिश्र
अशर्फी लाल मिश्र
परिचय :
विट्ठलविपुल देव की हरिदासी सम्प्रदाय में प्रमुख भक्त कवियों में गिनती की जाती है। ये स्वामी हरिदास के मामा के पुत्र थे। हरिदासी सम्प्रदाय के विद्वानों के अनुसार ये स्वामी हरिदास से आयु में कुछ बड़े थे और इनकी मृत्यु स्वामी जी की मृत्यु के एक वर्ष बाद हुई। इसलिए ये स्वामी जी के समकालीन हैं। इनका निधन-काल वि ० सं ० १६३२ मन जा सकता है । इनका जन्म कहाँ हुआ यह निश्चित नहीं है लेकिन यह सर्वसम्मत है कि स्वामी हरिदास के जन्म के बाद आप उनके पास राजपुर में ही रहते थे और स्वामी जी के विरक्त होकर वृन्दावन आ जाने पर आप भी वृन्दावन आ गये। आयु में बड़े होने पर भी स्वामी हरिदास का शिष्यत्व स्वीकार किया। ये बाल्यकाल से ही स्वामी जी से प्रभावित थे और उन्हें एक महापुरुष मानते थे। स्वामी जी की मृत्यु के उपरान्त ये टट्टी संस्थान की गद्दी पर बैठे किन्तु स्वामी जी के वियोग की भावना इतनी प्रवल थी एक वर्ष बाद ही इनका परलोक गमन हो गया।
रचनाएँ :
प्यारी पियहि सिखावति बीना।
ताल बंध्यान कल्यान मनोहर इत मन देह प्रवीना।।
लेति सम्हारि- सम्हारि सुघरवर नागरि कहति फबीना।
श्री विट्ठलविपुल विनोद बिहारी कौ जानत भेद कवीना।। (विट्ठलविपुल देव की वाणी ;पद २९)
इसी प्रकार निम्न पद में कवि ने राधा की निशि-विहार के बाद की छवि का सफल चित्रण किया है:
प्रिया स्याम संग जागी है।
सोभति कनक-कपोल ओप पर दसन-छाप-छवि लागी है।।
अधरन रंग छुटी अलि को वल सुरति रंग अनुरागी है।
श्री विठ्ठलविपुल कुंज की क्रीड़ा काम-केलि-रस पागी है।। ((विट्ठलविपुल देव की वाणी ;पद ७ )
साभार स्रोत :
अशर्फी लाल मिश्र
परिचय :
विट्ठलविपुल देव की हरिदासी सम्प्रदाय में प्रमुख भक्त कवियों में गिनती की जाती है। ये स्वामी हरिदास के मामा के पुत्र थे। हरिदासी सम्प्रदाय के विद्वानों के अनुसार ये स्वामी हरिदास से आयु में कुछ बड़े थे और इनकी मृत्यु स्वामी जी की मृत्यु के एक वर्ष बाद हुई। इसलिए ये स्वामी जी के समकालीन हैं। इनका निधन-काल वि ० सं ० १६३२ मन जा सकता है । इनका जन्म कहाँ हुआ यह निश्चित नहीं है लेकिन यह सर्वसम्मत है कि स्वामी हरिदास के जन्म के बाद आप उनके पास राजपुर में ही रहते थे और स्वामी जी के विरक्त होकर वृन्दावन आ जाने पर आप भी वृन्दावन आ गये। आयु में बड़े होने पर भी स्वामी हरिदास का शिष्यत्व स्वीकार किया। ये बाल्यकाल से ही स्वामी जी से प्रभावित थे और उन्हें एक महापुरुष मानते थे। स्वामी जी की मृत्यु के उपरान्त ये टट्टी संस्थान की गद्दी पर बैठे किन्तु स्वामी जी के वियोग की भावना इतनी प्रवल थी एक वर्ष बाद ही इनका परलोक गमन हो गया।
रचनाएँ :
- चालीस स्फुट पद एवं कवित्त
माधुर्य भक्ति :
विट्ठलविपुल देव के उपास्य श्यामा-श्याम परम रसिक हैं। ये नित्य -किशोर सदा विहार में लीन रहते हैं। इनकी वह निकुंज-क्रीड़ा काम-केलि रस-पागी होने पर प्रेम-परक होने के कारण सदा भक्तों का मंगल विधान करती है। यद्यपि सामान्य से राधा और कृष्ण को विट्ठलविहारी देव ने नित्य विहारी स्वीकार किया है ,किन्तु कुछ लीला परक पदों में उनका स्वकीया सम्बन्ध भी सूचित होता है :
मिलि खेलि मोहन सो करि मनभायो।
कुंज बिहारीलाल रसबस बिलसत मेरे तन मन फूलि अपनो कर पायो।।
तुम बिन दुलहिन ए दिन दूलह सघन लता गृह मंडप छायो।
कोकिल मधुपगन परेगी भाँवरी तहाँ श्री विट्ठलविपुल मृदंग बजायो।। (विट्ठलविपुल देव की वाणी ;पद ३१ )
उपास्य -युगल की लीलाओं का गान एवं ध्यान ही इनकी उपासना है। अतः इन्होंने राधा-कृष्ण की प्रातःकाल से निशा-पर्यन्त होने वाली सभी लीलाओं का गान अपनी वाणी में किया है। इनमें से वन-विहार ,झूलन, वीणा -वादन-शिक्षा आदि लीलाएं उल्लेखनीय हैं। जिनकी बाँसुरी की तान सुनकर चार,अचर सभी मोहित हो जाते हैं। उन्हीँ कृष्ण को वीणा सिखाती हुई राधा का यह वर्णन भाव और भाषा दोनों दृष्टियों से सुन्दर है :मिलि खेलि मोहन सो करि मनभायो।
कुंज बिहारीलाल रसबस बिलसत मेरे तन मन फूलि अपनो कर पायो।।
तुम बिन दुलहिन ए दिन दूलह सघन लता गृह मंडप छायो।
कोकिल मधुपगन परेगी भाँवरी तहाँ श्री विट्ठलविपुल मृदंग बजायो।। (विट्ठलविपुल देव की वाणी ;पद ३१ )
प्यारी पियहि सिखावति बीना।
ताल बंध्यान कल्यान मनोहर इत मन देह प्रवीना।।
लेति सम्हारि- सम्हारि सुघरवर नागरि कहति फबीना।
श्री विट्ठलविपुल विनोद बिहारी कौ जानत भेद कवीना।। (विट्ठलविपुल देव की वाणी ;पद २९)
इसी प्रकार निम्न पद में कवि ने राधा की निशि-विहार के बाद की छवि का सफल चित्रण किया है:
प्रिया स्याम संग जागी है।
सोभति कनक-कपोल ओप पर दसन-छाप-छवि लागी है।।
अधरन रंग छुटी अलि को वल सुरति रंग अनुरागी है।
श्री विठ्ठलविपुल कुंज की क्रीड़ा काम-केलि-रस पागी है।। ((विट्ठलविपुल देव की वाणी ;पद ७ )
साभार स्रोत :
- ब्रजभाषा के कृष्ण- काव्य में माधुर्य भक्ति :डॉ रूपनारायण: :हिन्दी अनुसन्धान परिषद् दिल्ली विश्वविद्यालय दिल्ली के निमित्त :नवयुग प्रकाशन दिल्ली -७
- विट्ठलविपुल देव की वाणी
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