सोमवार, 22 मई 2017

कवि / सेवक ( दामोदरदास )

By :  अशर्फी लाल मिश्र
                                                              अशर्फी लाल मिश्र 

जीवन परिचय :
            भक्त कवि सेवक जी का राधावल्लभ सम्प्रदाय में प्रमुख स्थान है। इनका जन्म श्रेष्ठ ब्राह्मण कुल में गौंडवाने के गढ़ा नामक ग्राम में हुआ था । यह गढ़ा ग्राम  जबलपुर  से ३  किलोमीटर दूर स्थित है। इनके जन्म-संवत तथा मृत्यु-संवत के विषय में निश्चित रूप से कुछ भी पता नहीं है। किन्तु विद्वानों के अनुसार अनुमानतः इनका जन्म वि ० सं ० १५७७ तथा मृत्यु वि ० सं ० १६१० में हुई। (राधावल्लभ सम्प्रदाय :सिद्धांत और साहित्य :डा ० विजयेंद्र स्नातक :पृष्ठ ३४९ )
        सेवक जी बचपन से ही भगवत अनुरागी जीव थे। अपने ही गाँव के एक सज्जन चतुर्भुजदास से इनकी परम मैत्री थी। एकबार वृन्दावन के कुछ रसिकों से इनका समागम हुआ और उनसे श्यामा-श्याम की केलि का सरस वर्णन सुनने को मिला। दोनों मित्र इस लीला गान से विशेष प्रभावित हुए और दोनों ने उन सन्तों  से अपनी गुरु-धारणा  की अभिलाषा प्रकट की। वृन्दावन रसिकों से श्री हित हरिवंश महाप्रभु के परम् रसिक होने का समाचार प्राप्त कर इन्होंने वृन्दावन जा उन्हीं से दीक्षा लेने का निश्चय किया। परन्तु वे गृहस्थी से जल्दी छूट न सके और इसी बीच  श्री महाप्रभु जी का देहांत हो गया। तदुपरांत चतुर्भुजदास तो वृन्दावन चले गए और वहाँ हित  गद्दी पर विराजमान श्री वनचंद्र जी से राधा-मन्त्र ग्रहण किया। परंति सेवक जी इसी निश्चय पर दृढ़ रहे कि मैं तो स्वयं श्री हित जी से ही दीक्षा लूँगा अन्यथा प्राण का परित्याग कर दूँगा। कुछ समय उपरान्त श्री हित महाप्रभु सेवक जी साधना और दृढ़ निश्चय पर रीझ गए और स्वप्न में राधा-मन्त्र दिया ,जिसके प्रभाव से श्यामा-श्याम केलि तथा वृन्दावन-वैभव इनके ह्रदय में स्वतः स्फुरित हो उठा। वृन्दावन माधुरी  के प्रत्यक्ष दर्शन करने के उपरान्त  इनकी वाणी में एक प्रकार की मोहकता आ गई और राधा-वल्लभ की नित्य नूतन-छवि का वर्णन करने लगे। कुछ समय बाद आप श्री वनचन्द्र  का निमन्त्रण पाकर वृन्दावन चले गए। वहाँ इनका विशेष सत्कार हुआ। इनकी वाणी से प्रभावित होकर वनचन्द्र जी ने श्री हित चौरासी और सेवक वाणी  साथ पढ़ने का आदेश दिया। (श्री हितामृत सिंधु :सेवक चरित्र :पृष्ठ ६ ८ )
 रचनाएँ :
*सेवक वाणी (दोहे ,कवित्त पद आदि स्फुट रूप में )

माधुर्य भक्ति :
        उपास्य के रूप में सेवक जी श्यामा-श्याम दोनों का एक साथ साथ स्मरण किया है। उनकी दृष्टि में दोनों अभिन्न हैं,एक के विना  दूसरे का  अस्तित्व ही नहीं। इसमें आराध्या श्यामा हैं और नित्य प्रति उनका नाम स्मरण करने वाले श्याम आराधक हैं। अपने इस उपास्य-युगल की छवि और स्वरुप का   वर्णन सेवक जी ने अपने पदों में  किया है। सेवक जी की   राधा सर्वांग-सुन्दरी  सहज माधुरी-युता तथा नित्य नई -नई  केलि का विधान रचने वाली हैं :
                      सुभग सुन्दरी सहज श्रृंगार। 
                      सहज शोभा सर्वांग प्रति सहज रूप वृषभानु नन्दिनी। 
                      सहजानन्द कदंबिनी सहज विपिन वर उदित चन्दनी।।
                      सहज   केलि  नित-नित   नवल   सहज रंग सुख चैन। 
                      सहज   माधुरी   अंग   प्रति   सु   मोपै   कहत   बनेंन।। (हितामृत सिंधु :सेवक वाणी :पृष्ठ १०४ )
            विविध आभूषणों से भूषित रसिक शिरोमणि श्रीकृष्ण का सौन्दर्य भी अपूर्व अथच दर्शनीय है:
                      श्याम सुन्दर उरसि बनमाल। 
                      उरगभोग भुजदण्ड  वर ,कम्बुकण्ठमनि-गन बिराजत। 
                     कुंचित कच मुख तामरस मधु लम्पट जनु मधुप राजत।।
                     शीश    मुकुट   कुण्डल     श्रवन ,  मुरली  अधर   त्रिभंग। 
                     कनक कपिस  पट शोभि  अति ,जनु  घन  दामिनी संग।। (हितामृत सिंधु:सेवकवाणी :पृष्ठ १०४ )
           उपास्य-युगल श्यामा-श्याम की प्रेम लीलाओं का   गान एवं ध्यान ही इनकी उपासना है। इन लीलाओं के प्रति रूचि उपासक में तभी आती है जब उसके ह्रदय  प्रीति का अंकुर फूट पड़ता है और इसका केवल हरिवंश कृपा है~~
                    सब जग देख्यो चाहि ,काहि कहौं हरि भक्त बिनु। 
                    प्रीति  कहूँ  नहिं  आहि , श्री  हरिवंश  कृपा  बिना।।
        श्री हरिवंश की कृपा हो जाने पर जीव सबसे प्रेम करने लगता है,शत्रुऔर मित्र में ,लाभ और  हानि में,मान और अपमान में  समभाव वाला हो जाता है। हरिवंश कृपा के परिणामस्वरूप वह  सतत श्यामा-श्याम के नित्य विहार का प्रत्यक्ष दर्शन करता है और इस लीला दर्शन से उसे जिस आनन्द की की अनुभूति होती है वह प्रेमाश्रुओं तथा पुलक द्वारा स्पष्ट सूचित होता है :
                     निरखत नित्य विहार ,पुलकित तन रोमावली। 
                     आनन्द  नैन  सुढार ,यह  जु  कृपा हरिवंश की। (हितामृत सिंधु:सेवकवाणी :पृष्ठ ११३ )
        रास के इस वर्णन में सेवक जी ने अवसर के अनुरूप उपयुक्त सभी हाव-भावों को सरस् भाषा में प्रस्तुत किया है :
                     वंश  रस  नाद   मोहित  सकल  सुन्दरी,
                     आनि   रति  मानि   कुल   छाँड़ि  कानी। 
                     बाहु   परिरंग   नीवी   उरज  परसि हँसि,
                     उमंगि   रति   पति   रमित  रीति जानी।।
                     जूथ जुवतिन खचित ,रासमण्डल रचित,
                     गान       गुन       निर्त      आनन्ददानी।।
                     तत्त थेई -थेई करत,गतिव नौतन धरत,
                     रास     रस     रचित     हरिवंश     बानी।।(हितामृत सिंधु:सेवकवाणी :पृष्ठ ९३ )
         उपासक के स्वरुप तथा उपासक-धर्म की दृष्टि से सेवक जी का निम्न छप्पय बहुत सुन्दर है। इसमें संक्षेप में उपासक के साधना-क्रम का उल्लेख करते हुए सखी भाव से राधा-कृष्ण की सेवा का संकेत किया गया है :
                       पढ़त   गुनत   गुन   नाम   सदा   सत  संगति पावै। 
                       अरु   बाढ़ै   रस   रीति   विमल   बानी   गुन    गावै।।
                       प्रेम   लक्षणा     भक्ति    सदा    आनंद    हितकारी। 
                       श्री  राधा  युग   चरन    प्रीति   उपजै   अति    भारी।।
                       निज महल टहल  नवकुंज में नित सेवक सेवा करनं। 
                       निशदिन समीप संतत रहे सु श्री हरिवंश चरण शरणं।।हितामृत सिंधु:सेवकवाणी :पृष्ठ १२६  )
साभार स्रोत :

  • ब्रजभाषा के कृष्ण- काव्य में माधुर्य भक्ति :डॉ रूपनारायण :हिन्दी अनुसन्धान परिषद् दिल्ली विश्वविद्यालय दिल्ली के निमित्त :नवयुग प्रकाशन दिल्ली -७ 
  • राधावल्लभ सम्प्रदाय :सिद्धांत और साहित्य :डा ० विजयेंद्र स्नातक 
  • श्री हितामृत सिंधु :सेवक चरित्र

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