By : अशर्फी लाल मिश्र
अशर्फी लाल मिश्र
जीवन परिचय :
श्रीभट्ट की निम्बार्क सम्प्रदाय के प्रमुख कवियों में गणना की जाती है। माधुर्य के सच्चे उपासक श्रीभट्ट केशव कश्मीरी के शिष्य थे। श्रीभट्ट जी का जन्म संवत विवादास्पद है। भट्ट जी ने अपने ग्रन्थ "युगल शतक " का रचना काल निम्न दोहे में दिया है ;
नयन वाम पुनि राम शशि गनो अंक गति वाम।
युगल शतक पूरन भयो संवत अति अभिराम।। (युगल शतक :पृष्ठ 44 )
युगल शतक के संपादक श्रीब्रजबल्लभ शरण तथा निम्बार्क माधुरी के लेखक ब्रह्मचारी बिहारी शरण के अनुसार युगल शतक की प्राचीन प्रतियों में यही पाठ मिलता है। इसके अनुसार युगल शतक का रचना काल विक्रमी संवत 1352 स्थिर होता है। किन्तु काशी नागरी प्रचारिणी सभा के पास युगल शतक की जो प्रति है उसमें राम के स्थान पर राग पाठ है।इस पाठ भेद के अनुसार युगल शतक का रचना काल वि ० सं ० 1652 निश्चित होता है। प्रायः सभी साहित्यिक विद्वानों ~~ श्री वियोगी हरि (ब्रजमाधुरी सार :पृष्ठ 10 8 ) ,आचार्य रामचन्द्र शुक्ल (हिंदी साहित्य का इतिहास :पृष्ठ 1 8 8 ) ,आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी (हिंदी साहित्य :पृष्ठ 2 0 1 ) आदि ने पिछले पाठ को ही स्वीकार किया है। अतः इन विद्वानों के आधार पर श्री भट्ट जी का जन्म वि ० सं ० 15 95 तथा कविता काल वि ० सं ० 16 52 स्वीकार किया जा सकता है।
काव्य -रचना :
निम्बार्क सम्प्रदाय के विद्वानों के अनुसार श्रीभट्ट जी ने बहुत दोहे लिखे थे,जिनमें से कुछ ही युगल शतक के रूप में अवशिष्ट रह गये हैं। युगल शतक में छह सुखों का वर्णन है ;
माधुर्य भक्ति :
श्री भट्ट जी के उपास्य वृन्दाविपिन विलासी राधा और कृष्ण हैं। ये सदा प्रेम में मत्त हो विविध कुंजों में अपनी लीलाओं का प्रसार करते हैं। भट्ट जी की यह जोड़ी सनातन ,एकरस -विहरण -परायण ,अविचल ,नित्य -किशोर-वयस और सुषमा का आगार है। प्रस्तुत उदाहरण में :
राधा माधव अद्भुत जोरी ।
सदा सनातन इक रस विहरत अविचल नवल किशोर किशोरी।
नख सिख सब सुषमा रतनागर,भरत रसिक वर हृदय सरोरी।
जै श्रीभट्ट कटक कर कुंडल गंडवलय मिली लसत किशोरी।।(युगल शतक :पृष्ठ 24 -25 )
राधा -कृष्ण का पारस्परिक प्रेम सम है। वहाँ विषमता के लिए कोई स्थान नहीं है। दोनों ही अन्य के सुख का ध्यान रखते हैं ~ क्योंकि वे दूसरे की प्रसन्नता को ही अपनी प्रसन्नता .समझते हैं। इस प्रकार स्वार्थ के अभाव में उनका प्रेम शुद्ध अथच दिव्य है। राधा और कृष्ण वास्तव में एकरूप हैं। वे पल भर के लिए भी दूसरे से अलग नहीं होते। ऐसी ही छवि पर रसिक भक्त अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देता है। निम्न पद में श्री भट्ट ने उपास्य युगल की एकरूपता को उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया है:
प्यारी तन स्याम स्याम तन प्यारो।
प्रतिबिंबित अरस परस दोऊ पलक देखियत नहिं न्यारो।।
ज्यों दर्पन में नैन नैन में नैन सहित दर्पन दिखवारो।
जै श्रीभट्ट जोरि की अति छवि ऊपर तन मन धन न्यौछावर डारौं।।(युगल शतक :पृष्ठ 25 )
राधा और कृष्ण सदा विहार में लीन रहते हैं। किन्तु इनका यह नित्य विहार कन्दर्प की क्रीड़ा नहीं है। विहार में क्रीड़ा का मूल प्रेरक तत्व प्रेम है न कि काम। इसी कारण नित्य-विहार के ध्यान मात्र से भक्त को मधुर रस की अनुभूति हो जाती है। अतः भट्ट जी सदा राधा-कृष्ण के इस विहार के दर्शन करना चाहते हैं और यही उनकी उपासना है। वे कहते हैं :
सेऊँ श्री वृन्दाविपिन विलास।
जहाँ युगल मिलि मंगल मूरति करत निरन्तर वास।।
प्रेम प्रवाह रसिक जन प्यारै कबहुँ न छाँड़त पास।
खा कहौं भाग की श्रीभट्ट राधा -कृष्ण रस-चास।।(युगल शतक:पृष्ठ 4)
युगल किशोर की वन-विहार ,जल-विहार ,भोजन,हिंडोला,मान,सुरत आदि सभी लीलाएं समान रूप से आनन्द मूलक हैं। अतः भट्ट जी ने सभी का सरस् ढंग से वर्णन किया है। यमुना किनारे हिंडोला झूलते हुए राधा-कृष्ण का यह वर्णन बहुत सुन्दर है। इसमें झूलन के साथ तदनुकूल प्रकृति का भी उद्दीपन के रूप में वर्णन किया गया है। :
हिंडोरे झूलत पिय प्यारी।
श्री रंगदेवी सुदेवी विशाखा झोटा डेट ललिता री।।
श्री यमुना वंशीवट के तट सुभग भूमि हरियारी।
तैसेइ दादुर मोर करत धुनि सुनी मन हरत महारी।।
घन गर्जन दामिनी तें डरपि पिय हिय लपटि सुकुमारी।
जै श्री भट्ट निरखि दंपति छवि डेट अपनपौ वारी।।(युगल शतक :पृष्ठ 40 )
इसी प्रकार वर्षा में भीगते हुए राधा-कृष्ण का यह वर्णन मनोहारी है। यहाँ भाव की सुन्दरता के अतिरिक्त भाषा की सरसता ,स्पष्टता और प्रांजलता भी दर्शनीय है ;
भींजत कुंजन ते दोउ आवत।
ज्यों ज्यों बूंद परत चुनरी पर त्यों त्यों हरि उर लावत।।
अति गंभीर झीनें मेघन की द्रुम तर छीन बिरमावत।
जै श्री भट्ट रसिक रस लंपट हिलि मिलि हिय सचुपावत।।(युगल शतक )
राधा-कृष्ण की ये लीलाएं वृन्दावन में ही होती हैं। वृन्दावन की सीमा के बाहर कृष्ण की लीलाओं में ऐश्वर्य का मिश्रण है। अतः शुद्ध माधुर्य भाव के भक्त के लिए आवश्यक है कि वः अपने को वृन्दावन की लीलाओं में लीन करे। इन लीलाओं में तल्लीनता के साथ-साथ वृन्दावन-वास भी अभीष्ट है। भट्ट जी अनुसार यदि कृष्ण स्वयं वृन्दावन की सीमा के बाहर दर्शन दें तो उनके दर्शन के लिए भी वृन्दावन छोड़ना अच्छा नहीं है।
रे मन वृन्दाविपिन विहार।
यद्यपि मिलै कोटि चिन्तामणि तदपि न हाथ पसार।।
विपिन राज सीमा के बाहर हरिहुँ को न निहार।
जै श्री भट्ट धूलि धूसर तनु यह आशा उर धार।। (युगल शतक )
श्री भट्ट जी एक रसिक भक्त थे।
स्रोत साभार : ग्रन्थ अनुक्रमाणिका
अशर्फी लाल मिश्र
जीवन परिचय :
श्रीभट्ट की निम्बार्क सम्प्रदाय के प्रमुख कवियों में गणना की जाती है। माधुर्य के सच्चे उपासक श्रीभट्ट केशव कश्मीरी के शिष्य थे। श्रीभट्ट जी का जन्म संवत विवादास्पद है। भट्ट जी ने अपने ग्रन्थ "युगल शतक " का रचना काल निम्न दोहे में दिया है ;
नयन वाम पुनि राम शशि गनो अंक गति वाम।
युगल शतक पूरन भयो संवत अति अभिराम।। (युगल शतक :पृष्ठ 44 )
युगल शतक के संपादक श्रीब्रजबल्लभ शरण तथा निम्बार्क माधुरी के लेखक ब्रह्मचारी बिहारी शरण के अनुसार युगल शतक की प्राचीन प्रतियों में यही पाठ मिलता है। इसके अनुसार युगल शतक का रचना काल विक्रमी संवत 1352 स्थिर होता है। किन्तु काशी नागरी प्रचारिणी सभा के पास युगल शतक की जो प्रति है उसमें राम के स्थान पर राग पाठ है।इस पाठ भेद के अनुसार युगल शतक का रचना काल वि ० सं ० 1652 निश्चित होता है। प्रायः सभी साहित्यिक विद्वानों ~~ श्री वियोगी हरि (ब्रजमाधुरी सार :पृष्ठ 10 8 ) ,आचार्य रामचन्द्र शुक्ल (हिंदी साहित्य का इतिहास :पृष्ठ 1 8 8 ) ,आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी (हिंदी साहित्य :पृष्ठ 2 0 1 ) आदि ने पिछले पाठ को ही स्वीकार किया है। अतः इन विद्वानों के आधार पर श्री भट्ट जी का जन्म वि ० सं ० 15 95 तथा कविता काल वि ० सं ० 16 52 स्वीकार किया जा सकता है।
काव्य -रचना :
निम्बार्क सम्प्रदाय के विद्वानों के अनुसार श्रीभट्ट जी ने बहुत दोहे लिखे थे,जिनमें से कुछ ही युगल शतक के रूप में अवशिष्ट रह गये हैं। युगल शतक में छह सुखों का वर्णन है ;
- सिद्धांत
- ब्रजलीला
- सेवा
- सहज
- सुरत
- उत्सव
माधुर्य भक्ति :
श्री भट्ट जी के उपास्य वृन्दाविपिन विलासी राधा और कृष्ण हैं। ये सदा प्रेम में मत्त हो विविध कुंजों में अपनी लीलाओं का प्रसार करते हैं। भट्ट जी की यह जोड़ी सनातन ,एकरस -विहरण -परायण ,अविचल ,नित्य -किशोर-वयस और सुषमा का आगार है। प्रस्तुत उदाहरण में :
राधा माधव अद्भुत जोरी ।
सदा सनातन इक रस विहरत अविचल नवल किशोर किशोरी।
नख सिख सब सुषमा रतनागर,भरत रसिक वर हृदय सरोरी।
जै श्रीभट्ट कटक कर कुंडल गंडवलय मिली लसत किशोरी।।(युगल शतक :पृष्ठ 24 -25 )
राधा -कृष्ण का पारस्परिक प्रेम सम है। वहाँ विषमता के लिए कोई स्थान नहीं है। दोनों ही अन्य के सुख का ध्यान रखते हैं ~ क्योंकि वे दूसरे की प्रसन्नता को ही अपनी प्रसन्नता .समझते हैं। इस प्रकार स्वार्थ के अभाव में उनका प्रेम शुद्ध अथच दिव्य है। राधा और कृष्ण वास्तव में एकरूप हैं। वे पल भर के लिए भी दूसरे से अलग नहीं होते। ऐसी ही छवि पर रसिक भक्त अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देता है। निम्न पद में श्री भट्ट ने उपास्य युगल की एकरूपता को उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया है:
प्यारी तन स्याम स्याम तन प्यारो।
प्रतिबिंबित अरस परस दोऊ पलक देखियत नहिं न्यारो।।
ज्यों दर्पन में नैन नैन में नैन सहित दर्पन दिखवारो।
जै श्रीभट्ट जोरि की अति छवि ऊपर तन मन धन न्यौछावर डारौं।।(युगल शतक :पृष्ठ 25 )
राधा और कृष्ण सदा विहार में लीन रहते हैं। किन्तु इनका यह नित्य विहार कन्दर्प की क्रीड़ा नहीं है। विहार में क्रीड़ा का मूल प्रेरक तत्व प्रेम है न कि काम। इसी कारण नित्य-विहार के ध्यान मात्र से भक्त को मधुर रस की अनुभूति हो जाती है। अतः भट्ट जी सदा राधा-कृष्ण के इस विहार के दर्शन करना चाहते हैं और यही उनकी उपासना है। वे कहते हैं :
सेऊँ श्री वृन्दाविपिन विलास।
जहाँ युगल मिलि मंगल मूरति करत निरन्तर वास।।
प्रेम प्रवाह रसिक जन प्यारै कबहुँ न छाँड़त पास।
खा कहौं भाग की श्रीभट्ट राधा -कृष्ण रस-चास।।(युगल शतक:पृष्ठ 4)
युगल किशोर की वन-विहार ,जल-विहार ,भोजन,हिंडोला,मान,सुरत आदि सभी लीलाएं समान रूप से आनन्द मूलक हैं। अतः भट्ट जी ने सभी का सरस् ढंग से वर्णन किया है। यमुना किनारे हिंडोला झूलते हुए राधा-कृष्ण का यह वर्णन बहुत सुन्दर है। इसमें झूलन के साथ तदनुकूल प्रकृति का भी उद्दीपन के रूप में वर्णन किया गया है। :
हिंडोरे झूलत पिय प्यारी।
श्री रंगदेवी सुदेवी विशाखा झोटा डेट ललिता री।।
श्री यमुना वंशीवट के तट सुभग भूमि हरियारी।
तैसेइ दादुर मोर करत धुनि सुनी मन हरत महारी।।
घन गर्जन दामिनी तें डरपि पिय हिय लपटि सुकुमारी।
जै श्री भट्ट निरखि दंपति छवि डेट अपनपौ वारी।।(युगल शतक :पृष्ठ 40 )
इसी प्रकार वर्षा में भीगते हुए राधा-कृष्ण का यह वर्णन मनोहारी है। यहाँ भाव की सुन्दरता के अतिरिक्त भाषा की सरसता ,स्पष्टता और प्रांजलता भी दर्शनीय है ;
भींजत कुंजन ते दोउ आवत।
ज्यों ज्यों बूंद परत चुनरी पर त्यों त्यों हरि उर लावत।।
अति गंभीर झीनें मेघन की द्रुम तर छीन बिरमावत।
जै श्री भट्ट रसिक रस लंपट हिलि मिलि हिय सचुपावत।।(युगल शतक )
राधा-कृष्ण की ये लीलाएं वृन्दावन में ही होती हैं। वृन्दावन की सीमा के बाहर कृष्ण की लीलाओं में ऐश्वर्य का मिश्रण है। अतः शुद्ध माधुर्य भाव के भक्त के लिए आवश्यक है कि वः अपने को वृन्दावन की लीलाओं में लीन करे। इन लीलाओं में तल्लीनता के साथ-साथ वृन्दावन-वास भी अभीष्ट है। भट्ट जी अनुसार यदि कृष्ण स्वयं वृन्दावन की सीमा के बाहर दर्शन दें तो उनके दर्शन के लिए भी वृन्दावन छोड़ना अच्छा नहीं है।
रे मन वृन्दाविपिन विहार।
यद्यपि मिलै कोटि चिन्तामणि तदपि न हाथ पसार।।
विपिन राज सीमा के बाहर हरिहुँ को न निहार।
जै श्री भट्ट धूलि धूसर तनु यह आशा उर धार।। (युगल शतक )
श्री भट्ट जी एक रसिक भक्त थे।
स्रोत साभार : ग्रन्थ अनुक्रमाणिका
- युगल शतक :श्रीभट्ट
- निम्बार्क माधुरी : ब्रह्मचारी बिहारी शरण
- ब्रजमाधुरी सार : श्री वियोगी हरि
- हिन्दी साहित्य का इतिहास : आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
- हिंदी साहित्य : हजारी प्रसाद द्विवेदी
- ब्रजभाषा के कृष्ण- काव्य में माधुर्य भक्ति :डॉ रूपनारायण :हिन्दी अनुसन्धान परिषद् दिल्ली विश्वविद्यालय दिल्ली के निमित्त :नवयुग प्रकाशन दिल्ली -७
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